पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८६०

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कबीर

   शब्दार्थ - पाती पच=पच ज्ञानेन्द्रियाँ रूपी पती । पहुप=मनरूपी फूल ।

सबद=अनहदनाद ।

   सन्दर्भ - इस पद मे कबीरदास एक ऐसी आरती का varnan करते है जिसके प्रकाश

मे परमात्मा के दर्शन हो जाते है ।

   भावार्थ - का kabiirdaas कहते है कि साधक को अपने इस देव की आरती इस प्रकार

मेरे द्वारा निर्दिष्ट ढग से उतारनी चाहिए जो तीनो लोको को तारने वाली है । इस आरती को प्राण वहाँ तेज-पुंज हरि का निवास है । पाँचो ज्ञानेन्द्रियो पाँच बत्तियों के रूप मे लेकर एक मात्र निरजन देव की पूजा करनी चाहिए । इसके बाद नैवेद्य के स्थान पर अपना तन,मन और शरीर समर्पित कर दे और फिर सहखार मे प्रकट होने वाली ज्योती मे अपनी आत्मा को पूरी तरह लीन कर देना चाहिए । इस्के बाद ज्ञान का दीपक लेकर अनहदनाद ruupii घटे का शब्द करते हुए उस अनन्त परमपुरूष का पूजन करना चाहिए । वास्तव मे उसी प्र्रमपुरुष के प्रकाश से यह समस्त संसार प्रकाशित हो रहा है । कबीरदास कहते है कि उस ज्योति के सम्मुख साधक को कहना चाहिए कि है प्रभु मे आपका सेवक हूँ । (कबीरदास जी अपने आपको इसी परम ज्योति स्वरूप पुरुष का दास कहते है।)

    अनहदनाद - देखे टिप्पणी पद स० १६४ ।
    अलंकार - (१)अनुप्रास-पाती पत्र पहुप पूजा।
            (२)रूपक पाती पच पहुप । दीपक ज्ञान,सबंद घुनि घंटा।
            (३)पदमंत्री-तन मन समरपन।
            (४)सागरूपक-सम्पूर्ण पद मे । आतरती के वाह्च उपकरणो के आध्यात्मिक अथा की कल्पना से सम्पूर्ण आरती हि आध्यात्मिक साध्ना एवं भक्ति मे परणित हो गई है।
    विशेष-प्राय समस्त सम्प्रदायो मे पूजा के अन्त मे भगवान की आरती उतारी जाती है।कबीरदास ने भी पदायली के अन्त मे अपने इष्ट देव की आरती उतरी है।यह