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[कबीर की साखी
 


भावार्थ—संशय ने समस्त जगत को खा डाला। पर संशय को कोई न (खा सका या) नष्ट कर सका। परन्तु जिन्हें गुरु के अक्षरों (शब्द वाणी) ने बेधा (या आहत किया) है, उन्होंने ही संशय को चुन-चुन कर (खा डाला या) नष्ट कर डाला।

विशेष—गीता में भगवान् कृष्ण का उपदेश है "संशयात्मा विनश्यति।" जो संशय, भ्रम, आशंका से परिपीड़ित हैं, वे नाश को प्राप्त होते हैं। (२) गुरु की वाणी में या शब्द वाणी में वह सामर्थ्य है कि शिष्य के समस्त संशय विनष्ट हो जाते हैं।

शब्दार्थ—खद्ध = खाया। जे = जिन्हें। वेधै = बेधा है, या आहत किया है। चुणि = चुनि। ससा = संशय।

चेतनि चौकी बैसि करि, सतगुर दीन्हांँ धीर।
निरभै होइ निसंक भजि, केवल कहै कबीर॥२३॥

संदर्भ—सतगुरु ने शिष्य के अनन्त लोचन ही नहीं उदघाटित किया, वरन् उसे धैर्य का वरदान भी दिया। साथ ही सतगुरु ने निःशक होकर ईश्वराराधना करने का भी उपदेश दिया।

भावार्थ—चैतन्य चौकी पर आसीन होकर सतगुरु ने धैर्य धारण करने का उपदेश दिया। धैर्य के साथ ही सतगुरु ने निर्भर एवं निःशक होकर ईश्वर क आराधना का उपदेश दिया।

विशेष—"चैतन्य चौकी" पर बैठकर से तात्पर्य है ज्ञान की चौकी या ज्ञान के आसन पर बैठकर। (२) चेतनि... धीर—ज्ञान के उच्च आसन पर बैठकर सत्गुरु ने शिष्य को धैर्य का धारण करने का आशीर्वाद दिया। (३) "निरभै होइ निसक भजि" से तात्पर्य है निर्भय और शंका रहित होकर आराधना कर। (४) "भजि" से तात्पर्य है 'जप।' यहाँ यह शब्द आदेशात्मक रूप में प्रयुक्त हुआ है। (५) "केवल" का तात्पर्य है अद्वैत ब्रह्म 'केवल' शब्द का प्रयोग संतों ने ब्रह्म अद्वैत अर्थ में किया है।

शब्दार्थ—चेतनि = चेतन = चैतन्य। वैसि = बैठि। धीर = धैर्य। निरभै = निर्भय। निसंक = निःषक। होइन होकर। भजि = भज। करि = कर।

सतगुर मिल्यात का भया, जे मनि पाड़ी भोल।
पामि विनंठा कप्पढा, क्या करै विचारी चोल॥२४॥