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गुरुदेव को अंग]
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संदर्भ—कबीर ने प्रस्तुत साखी का भाव "सतगुर कौ अंग" की २१ वीं साखी में व्यक्त करते हुए कहा है "सतगुर बपुरा क्या करे, जे सिपाही मँहि चूक।" इसी भाव को किंचित अधिक विस्तार साथ व्यक्त करते हुए कवि ने सुन्दर अप्रस्तुत, योजना की आयोजना की है।

भावार्थ—यदि मन ही भूलों से भरा है तो, सतगुरु का मिलना और न मिलना समान है। यदि पास में विनष्ट या फटा। कपड़ा है, तो उसके आधार पर तैयार किया हुआ अधीवस्त्र की क्या उपयोगिता होगी।

विशेष—प्रस्तुत साखी में शुलभ एवं सरल अप्रस्तुत योजना के माध्यम से कबीर ने यह कहा है कि यदि शिष्य का मन माया में ही अनुरक्त है तो सतगुरु बेचारे का क्या दोष। फटे हुए कपड़े से शरीर नहीं ढका जाता है। यदि इतना होने पर भी कोई फटे हुए वस्त्र से चोल या चोली मिले और उससे शरीर आवृत नहीं सकते, कपड़े का क्या दोष।

शब्दार्थ—त = सो। का = क्या। भवा = हुआ। जो = यदि। पाडी = पारी या आच्छादित। भोल = भ्रम। पासि = पास अधिकार में। विनठा = विनष्ठ। कप्पड़ा = कपड़ा। चोल = चोली।

बूड़े थे परि ऊबरे, गुर की लहरि चमंकि।
भेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पड़े फरकि॥२५॥

संदर्भ—गुरुदेव को अंग की २० वीं साखी में कबीर ने गुरु को अद्वितीय शक्ति का उल्लेख किया है, जिसकी कृपा से एक आध शिष्य का उद्धार होता है। कबीर ने उक्त साखी में कहा है "कहै कबीर गुर ग्यान थै एक आध उबंरत।" यहाँ पर कबीर ने पुनः उमी आशय को अभिनव अप्रस्तुत योजना द्वारा नये कदम में व्यक्त किया है।

भावार्थ—हम भव सागर में मग्न थे। पर गुरु की (कृपा की) लहर चमक देखकर मेरा उद्धार हो गया। सतगुरु की कृपा प्राप्त होते ही मैंने जर्जर बेडा का परित्याग कर दिया और उस पर से फड़क कर उतर पड़ा।

विशेष—गुरु की कृपा अगाध और असीम है तथा सागर। सागर की अत्तरङ्ग लहरों में प्रवल शक्ति होती है। उसी प्रकार सागर में अद्भुत शक्ति है।वह शिष्य का उद्धार करने में सशक्त है। (२) "बूड़े थे परि ऊबरे" तात्पर्य है भव सागर में डूबे हुए थे पर उद्धार हो गये। (३) "लहरि" से तात्पर्य 'कृपा की लहर।' (४) "चमंकि" चमक या प्रकाश। गुरु की कृपा की ज्योति प्रकाशित हुई या प्रकाशित