पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८८१

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प्रन्यावली ] [५७७

    शब्दार्थ-- हसा==शुध्द चैतन्य । त्रिजुग==तिर्यक योनि, पशु पक्षी आदि प्राणी । प्रग्रह== परिग्रह धन का सचय । निहोरा==शरणागति ।
    सन्दर्भ--कबीरदास के गुरु (बुध्दि मनस) रमेणी सख्या १४ मे पूछे गये प्रशनो का उत्तर देते हुए सार वस्तुओ को बताते है ।
    भावार्थ--हे जीव, आत्म स्वरूप मे स्थित होकर सुनो, मै विचार करके तुम्हरे प्रश्नो का उत्तर देता हुँ । पशु-पक्षी आदि प्राणियो की समस्त योनिया है- अज्ञान की हेतु है । यदि किसी को मिल सके, तो पाने योग्य केवल मनुष्य जन्म ही उत्तम है । अगर मै परम तत्व राम को जान सकूँ तो बुध्दिमान समझ जाऊँगा। जीव यदि चेतकर भ्रम एंव अज्ञान को नही त्यागता है,तो वह अपना जन्म व्यर्थ ही गँवा देता है । ज्ञानोदय रूपी प्रभात काल को यदि वह छोड देता है, तो फिर अन्त मे उसको पछताना पडता है । जो भक्ति को समस्त सुखो का मूल समझता है वह भक्ति से रहित अन्य समस्त वस्तुओ को दु ख के रूप मानता है । राम का प्रिय होना ही केवल अमृत रूप है, तथा विषय-वासना विष के भण्डार है । राम मे रमना ही केवल हर्ष का हेतु है, शेष तो विषाद हेतुक कार्य है । निवृत्ति परायण की सगति ही सार वस्तु है । शेष सव की सगति व्यर्थ है । समस्त संसार अमगलकारी है, केवल प्रिय राम ही मगलकारी है । स्त्य वही है जो स्थिर रहता है । जो उत्पन्न होता है और नष्ट होता है, वह तो मिथ्या और झूठ है । मधुर वही है जो सहज भाव से प्राप्त होत है और जिसकी प्राप्ति मे कलेश भोगने पडते है, वही कडुआ है । जिसमे मै और मेरी की भावना नही है, उसको जलना नही पड़ता है । जहाँ राम की शरणागति है, वही आनन्द है । मुक्ति वह अवस्था है जिसमे व्यक्ति अपने स्वरूप को तथा परम स्वरूप को पहचानता है । निर्वाण पद वह अवस्था है जहाँ समस्त भ्रम दूर हो जाते है । प्राणनाथ राम ही संसार के जीवनाधार है तथा राम का प्रेम अत्यन्त दुर्लभ वस्तु है । पुत्र, शरिर, धन, परिग्रह तथा परिजनो के लिए जीना तो केवल पक्षा का वृक्ष पर थोडी देर का बसेरा मात्र है । अभिप्राय यह है कि राम भक्ति जीवन को स्थिरता प्रदान करती है । शेष जीवन एंव सम्बन्ध क्षणिक है एंव महान उध्देश्य से हीन है । 
     अलंकार-सभग पद यमक - मार असार, अनहित हित ।
     विशेष-(१)स्त्यासत्य का सुन्दर निरूपण है ।
           (२) सो पद भुलानै-- कबीर पन्थ मे 'ब्रह्रापद' आदि अवस्थाओ को ही परम प्राप्तव्य मान लेने को भ्रम कहा गया है । अंत इस पद को भी भ्रम मे भुलाने वाला कहा गया है। अंत इस पकित का अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है-- जो भ्रम मे भुलाने वाला है उसे 'पद' की सज्ञा कैसे दी जा सकती है?
         (३) ना जरिये"     ""मेरा-- अह्ंकार,ममता एंव रागव्देष ही वस्तुत्ः ताप के हेतु है ।