पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८८२

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ए७ए ] [कबीर

    (४) मनिषा जनम पावा--समभाव देखे--"बडे भाग मानुष तन
पावा" क्योकि यह 'साधन धाम मोक्ष  कर द्वारा" है ।
तथा--हरि,तुम बहुत अनुग्रह कोन्हो ।
      साधन-धाम बिबुध-दुरलभ तनु,मोहि कृपा करि दीन्हों ।
                                         (गोस्वामी तुलसीदास)
                 (१६)
 रे रे जीय अपनां दुख न सभारा,जिहि दुख व्याप्या रु ब ससारा ॥
 माया मोह भुले सब लोई, क्यचित लाभ मानिक दीयौ खोई ॥
 मै मेरी करि बहुत बिगूता, जन्नी उदर जन्म का सूता ॥
 बहुतै रूप भेष बहु कींन्हां,जुरा मरन क्रोध तन खींनां ॥
 उपजै बिनसै जोनि फिराई,सुख कर मूल न पावै चाही ॥
 दुख संताप कलेस  बहु पावै,सो न मिलै जे जरत बुझावै ॥
 जिहि हित जीव राखिहै भाई, सो अनहित है जाइ बिलाई ॥
 मोर तोर करि जरे अपारा, मृग त्रिष्णां झूठी   संसारा ॥
 माया मोह झूठ रह्यै लागी, का भयौ इहां का ह है आगी ॥
 क्छु कछु चेति देखि जीव अबही , मनिषा  जनम न पावै कबही ॥
 सार आहि जे सग पियारा ,जब चेतै तब ही उजियारा ॥
 त्रिजुग जोनि जे आहि अचेता,मनिषा जनम भयौ चित चेता ॥
 आतमां मुरछि मुरछि जरि जाई,पिछले दुख कहता न सिराई ॥
 सोई त्रास जे जांनै ह्ंसा ,तौ अजहु न जीव करै संतोसा ॥
 भौसगर अति वार न पारा,ता तिरिबे का करहु बिचारा ॥
 जा जल की आदि अति न्हीं जानियै,ताकौ डर काहे न मानियै ॥
 को बोहिथ को खेवट आही,जिहि तरिये सो लीजै चाही ॥
 समझि  विवारि जीव जब देखा,यहु ससार सुपन करि लेखा ॥
 भई वुधि कछु ग्यांन निहारा,आप आप ही किया विचारा ॥
 आपण मैं जे रह्यौ समाई, नेडै दूरि कथ्यौ नहीं जाई ॥
 ताके चीन्हें परचौ पावा,भई समझि तासूं मन लावा ॥
     भाव भगति  हित वोहिथा, सतगुर खेवनहार ।
     अलप उदिक त्व जांणिये,जब गोपदखुर विस्तार ॥
   शब्दार्थ-तभारा==ध्यन दिया ।मानिक==माणिक, चैतन्य स्वरूप रूपी
 मणि ।विगूता==बर्बाद किया ।थिजुग==तियैक,पशु पक्षी आदि की योनि  ।
 अलप==अल्प ,योडा सा जो दुर्लध्य न हो ।
   सन्दर्भ-कबीर जीव  के अज्ञान का वर्णन करते हुए कहते है।
   भावार्थ --अरे जीव, तुमने अपने दु ख के कारण पर ध्यान नही दिया ।
वासनाजन्म इस दुःख से समस्त संसार ग्रसित है । सब जीव माया मोह मे भूले हुए