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गुरुदेव को अंग]
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यहाँ पर उन स्वांग भरने वालों की ओर संकेत किया गया है जो यती के भेष को धारण कर भिक्षार्जन में प्रवृत्त है।

भावार्थ—कबीर दास कहते हैं कि (शिष्य को) सद्गुरु न प्राप्त हुआ और दीक्षा या शिक्षा अपूर्णं रही। यती का वेष धारण करके (अधूरी शिक्षा प्राप्त शिष्य) भिक्षार्जन करते फिरते हैं।

विशेष—अनुभव एवं ज्ञान से शून्य गुरु जो शिक्षा देता है, वह अपूर्ण या अधूरी शिक्षा हो अपूर्ण ज्ञान, नीतिकारों ने विनाशकारी माना है। (२) कबीर ने वेश को स्वांग या तमाशा माना है।

शब्दार्थ—स्वांग = तमाशा। जती = यती। परि = पहन। घरि= घर। भीष = भीख = भिक्षा। सीष = सीख = शिक्षा।

सतगुर साँचा सूरिवाँ, तातैं लोहिं लुहार।
कसणी दे कंचन किया, ताइ लिया ततसार॥२८॥

सन्दर्भ—कृत्रिम या असंगत गुरु मिलने का प्रतिफल होता है, "अधै अघा ठेलिया, दून्यूं कूप पडत" तथा "दून्यू बूड़े घार मैं चढ़ि पाथर की नाव।" सतगुर सम्पर्क में आने का क्या प्रभाव होता है। इसका उल्लेख कबीर ने प्रस्तुत "अंग" की साखी ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३ आदि अकित किया है। यहाँ पर पुन कबीर ने सतगुरु की वन्दना करते हुए उसे तत्व एवं सार का शोधक माना है।

भावार्थ—सतगुर सच्चा शूरमा है। यथा लुहार लोहे को दग्ध करके शुद्ध करता है उसी प्रकार साधना की अग्नि में तप्त करके शिष्य को शुद्ध कर लिया है। शिष्य की साधना की कसौटी में कस कर कंचनवत् बना लिया है और सार तत्व को सम्प्राप्त कर लिया है।

विशेष— प्रस्तुत साखी में साधना की अग्नि में शिष्य को निर्मल कर लेने का उल्लेख है। माया के असार तत्व साधना की कसौटी से हो दूर किए जा सकते हैं।

शब्दार्थ—साँचा = सच्चा सूरियाँ = सूरमा = शूरमा। ताते = तात = त्प्त कमणी = कमनी = कसौटी में कसने की प्रक्रिया। तत = तत्व ५.५.६२.

थापणि पाई विति भई, सतगुर दीन्हीं धीर।
कबीर हीरा-बण्जिया, मानसरोवर तीर॥२९॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में कवि ने "सतगुर कौ अंग" की साखी २३ तथा १२ का भाव किंचित परिवर्तन के साथ किया गया है। सतगुरु ने धैर्य एवं निर्भय