"खेलै दास कबीर" मे आत्मविश्वास दृढ़ता तथा सतगुरु पर आस्था का भाव प्रतिबिम्बित होता है ।
शब्दार्थ–सारी = चौग्ड । सरीर = शरीर । दाव = दाव, चाल । बताइया = बता रहा है।
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग ।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग ॥३३॥
सन्दर्भ–प्रस्तुत प्रसंग में कबीर ने अनेक बार कहा है कि "सतगुरु मार्या बाण भरि," 'सतगुरु साचा मरिवो, सबद जु बाह्य एक"। "लागत ही मैं मिट गया, पड़या कलेजे छ़ेक" तथा "सतगुरु लई कमांण कहि, बाहण लागा तीर। एक जु बाह्या प्रीति सूं भीतरि रह्या सरीर।" एक शब्द बाण से आहत होने के अनन्तर, अब कबीर का अन्तर प्रेम के बादल से भीग जाने का वर्णन है। यहाँ सतगुरु ने एक प्रसंग कहा है और वहाँ एक कमांन के चलने का उल्लेख है। दोनों का फल एक ही है। परन्तु प्रभाव दोनों का दिव्य, असाधारण और ब्रह्यानुभूति है।
भावार्थ–सतगुरु ने हमसे प्रसन्न होकर एक प्रसंग कहा। फलतः प्रेम का बादल बरसा और सब अंग आर्द्र हो गए।
विशेष–सतगुरु ने शिष्य की योग्यता, सच्चाई और लगन देखकर उसके उपर्युक्त प्रेम का एक प्रसंग प्रस्तुत किया। यह प्रेम का प्रसंग ब्रह्यानुभूति का प्रसंग था। प्रेम का यह प्रसंग इतना प्रभावशाली था कि शिष्य के समस्त अंग उसी से आर्द्र हो गये। इसी भाव से प्रेरित होकर कबीर ने अन्यत्र कहा है कि "लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल। लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।" यहाँ भी प्रेम का अनुराग के रंग में समस्त अंगों के भीग जाने का वर्णन है।
शब्दार्थ–रीझि = प्रसन्न । बरस्या = बरसा । भीजि = भीगि = भीग।
कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ ।
अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ ॥३४॥
सन्दर्भ–प्रस्तुत साखी मे कबीर ने पुनः प्रेम के बादल की वर्षा और उसके व्यापक प्रभाव का वर्णन किया है।
भावार्थ–कबीर कहते है कि प्रेम का बादल हम पर आकर बरसा । फलतः अलस और आत्मा उसके प्रभाव से भीग गया और बनराय हरा हो गया।
विशेष–अतम माया के आकर्षक आवरण तथा पंच विकारो (काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ) मे अनुरक था। परन्तु यहा प्रेम के जल या सतगुरु के उपदेश जल