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जुड़ते गए हैं। हम आज भी शहर की पूरी सूची का दावा तो नहीं कर सकते। मरुभूमि के इस भव्यतम नगर में हर काम के लिए तालाब बने थे। बड़े पशुओं के लिए तो थे ही, बछड़ों तक के लिए अलग तालाब थे। बछड़े को बड़े पशुओं के साथ दूर तक चरने नहीं भेजा जाता। इसलिए उनके तालाब शहर के पास ही बने थे। एक जगह तीन तलाई एक साथ थीं–इस जगह का नाम ही तीन तलाई पड़ गया था। आज इन्हें मिटा कर इनके ऊपर इंदिरा गांधी स्टेडियम खड़ा है।

जैसलमेर के तालाबों को समझने में हमें श्री भगवानदास माहेश्वरी, श्री दीनदयाल ओझा, श्री ओम थानवी और श्री जेठूसिंह भाटी से बहुत सहायता मिली है। ओझाजी और भाटीजी ने तो हमें सचमुच उंगली पकड़ कर इनकी बारीकियां दिखाई-समझाई हैं।

घड़सीसर, गड़सीसर, गड़ीसर–नाम घिसता है, घिस कर चमक देता है। यह तालाब समाज के मन में तैरता है। अनेक नाम, अनेक रूप। यह जैसलमेर के लिए गर्व का भी कारण है और घमंड का भी। कोई यहां ऐसा बड़ा काम कर दे, जो उसकी हैसियत से बाहर का हो, तो उस काम का सारा श्रेय कर्ता से छीन कर गड़ीसर को सौंप देने का भी चलन रहा है–"क्या गड़ीसर में मुंह धो आया था?" और यदि कोई डींगें हांक रहा हो तो उसे जमीन पर उतारने के लिए कोई कह देगा, "जा गड़ीसर पोणी स मांडो धो या।" जा, गड़ीसर के पानी से मुंह तो धो कर आ जरा।

लोग गड़ीसर और उसे बनाने वाले महारावल घड़सी को आज भी इतना मानते हैं कि किसी भी प्रसंग में बहुत दूर से यहां नारियल चढ़ाने आते हैं। महारावल घड़सी की समाधि पाल पर कहां है, इसे उनके वंशज भले ही भूल गए हों, लोगों को तो आज भी मालूम है।

कहते हैं आजादी से पहले तक गड़ीसर के लिए शहर में अनुशासन भी खूब था। इस तालाब में एक अपवाद को छोड़ नहाना, तैरना मना था–बस पहली बरसात में सबको इसमें नहाने की छूट होती थी। बाकी पूरे बरस भर इसकी पवित्रता के लिए आनंद का एक अंश, तैरने, नहाने का अंश थोड़ा बांध कर रखा जाता था।

महारावल घड़सी

आनंद के इस सरोवर पर समाज अपनी ऊंच-नीच भी भुला देता था। कहीं दूर पानी बरसने की तैयारी दिखे तो मेघवाल परिवारों की महिलाएं गड़ीसर की पाल पर अपने आप आ जातीं, वे कलायण गीत गातीं, इंद्र को रिझाने। इंद्र के कितने ही किस्से हैं, न जाने किस-किस को रिझाने के लिए अप्सराएं भेजने के। लेकिन यहां गड़ीसर पर रीझ जाते थे स्वयं इंद्र। और मेघवाल परिवार की स्त्रियां इस गीत के लिए पैसा नहीं स्वीकार करती थीं। कोई उन्हें इस काम की मजदूरी या इनाम देने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था। स्वयं महारावल, राजा

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राजस्थान की रजत बूंदें