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राजस्थान की रजत बूंदें

समय की अंतहीन धारा को क्षण-क्षण में देखने और विराट, विस्तार को अणु में परखने वाली इस पलक ने, दृष्टि ने हाकड़ो को खो दिया। पर उसके जल को, कण-कण को, बूंदों में देख लिया। इस समाज ने अपने को कुछ इस रीति से ढाल लिया कि अखंड समुद्र खंड-खंड होकर ठांव-ठांव यानी जगह-जगह फैल गया।

भूगोल की किताबें वर्षा को 'कंजूस महाजन' की तरह देखती हैं

चौथी हिंदी की पाठ्य पुस्तकों से लेकर देश के योजना आयोग तक राजस्थान की, विशेषकर मरुभूमि की छवि एक सूखे, उजड़े और पिछड़े क्षेत्र की है। थार रेगिस्तान का वर्णन तो कुछ ऐसा मिलेगा कि कलेजा सूख जाए। देश के सभी राज्यों में क्षेत्रफल के आधार पर मध्यप्रदेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा राज्य राजस्थान आबादी की गिनती में नौवां है, लेकिन भूगोल की सब किताबों में वर्षा के मामले में सबसे अंतिम है।

वर्षा को पुराने इंच में नापें या नए सेंटीमीटर में, वह यहां सबसे कम ही गिरती है। यहां पूरे बरस भर में वर्षा ६० सेंटीमीटर का औसत लिए है। देश की औसत वर्षा ११० सेंटीमीटर आंकी गई है। उस हिसाब से भी राजस्थान का औसत आधा ही बैठता है। लेकिन औसत बताने वाले आंकड़े भी यहां का कोई ठीक वर्षा चित्र नहीं दे सकते। राज्य में एक छोर से दूसरे छोर तक कभी भी एक सी वर्षा नहीं होती। कहीं यह १०० सेंटीमीटर से अधिक है तो कहीं २५ सेंटीमीटर से भी कम।

भूगोल की किताबें प्रकृति को, वर्षा को यहां 'अत्यन्त कंजूस' महाजन की तरह देखती हैं और राज्य के पश्चिमी क्षेत्र को इस महाजन का सबसे दयनीय शिकार बताती हैं। इस क्षेत्र में जैसलमेर, बीकानेर, चुरू, जोधपुर और श्रीगंगानगर आते हैं। लेकिन यहां कंजूसी में भी कंजूसी मिलेगी। वर्षा का 'वितरण' बहुत असमान है। पूर्वी हिस्से से पश्चिमी हिस्से की तरफ आते-आते वर्षा कम से कम होती जाती है। पश्चिम तक जाते-जाते वर्षा सूरज की तरह 'डूबने' लगती है। यहां पहुँच कर वर्षा सिर्फ १६ सेंटीमीटर रह जाती है। इस मात्रा की तुलना कीजिए दिल्ली से, जहां १५० सेंटीमीटर से ज्यादा पानी गिरता है, तुलना कीजिए उस गोवा से, कोंकण से, चेरापूंजी से, जहां यह आंकड़ा ५०० से १००० सेंटीमीटर तक जाता है।