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Act I
SAKUNTALÅ


छोडते ही घोड़े सिमटकर कैसे " झपटे कि " खुरों की धूल भी साथ न लगी"। केश खड़े करके " और कनौती उठाकर घोड़े दौड़े क्या हैं उड़ आये हें ॥

दुष्य० । सत्य है। ऐसे झपटे कि छिन भर "में हरिण से आगे बढ़ आये। जो वस्तु पहले दूर होने के कारण छोटी दिखाई देती थीं सो अव बड़ी जान पड़ती हैं और जो मिली हुई सी" थी सो अलग अलग निकली । जो टेढ़ी थी सो सीधी हो गई। पहियेां के वेग से थोड़े कालन तक तो टूर और नगीच में कुछ अन्तर ही न रहा था"। अब देखो हम इसे गिराते हैं॥ (धनुष पर बाण चढ़ाता हुआ)

(नेपथ्य में) इसे मत मारो। यह आश्रम का मृग है॥

सार° ।
(शब्द मुनता और देखता हुआ)
महाराज बाण के संमुख" हरिण तौ” आया । परंतु ये दो तपस्वी नाहीं करते हैं कि इसे मारो मत्त ॥

दुष्य० । अच्छा। तो घोड़ों को रोको ॥ सार० । जो अाज्ञा ” ॥

(रास सेंश्चता हुषा)

(एक तपस्वी और उस का चेला आपा)

तपस्वी। (चांह उठाकर) हे क्षची यह मृग आश्रम का है। इस को मत मारो। देखो इस को मत मारो। इस के कोमल शरीर में जो बाण लगेगा सो मानो रूई के पुन में आग लगेगी। कहां" तुम्हारे वजबाण कहां इस के अल्प प्राण । हे राजा बाण की उतार ली। यह तो दुखियों की रक्षा के निमित्त है निरपराधियों पर चलाने को नहीं है॥

दुष्य० । (नमस्कार करके ") लो तीर को उतार लेता हूं ॥ (याण उतार लिपा)

तप०।। (हर्प से,) हे पुरुकुलदीपक " आप को यही उचित है। लो हम भी आशीर्वाद देते हैं कि आप के” आप ही सा चक्रवतीं और धर्मात्मा पुत्र ही ॥

चेला। (दोनों हाथ इटाकर)आप का पुच धर्मज्ञ और चक्रवतीं हो ॥