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[ACT II.
SAKUNTALA.


है कि आप की आबल बढ़ाने के निमित्त आज से चौथे दिन89 आप की वरसगांठ का उत्सव होगा। उस समय आप का आना भी अवश्य है।


दुष्य० । इधर तो तपस्वियों का काम उधर बड़ों की आज्ञा । इन में से कोई उल्लङ्घन योग्य नहीं है। इस का क्या उपाय करूं ॥


माढ० । (हंसकर) अब तो तुम विशङ्क90 बनकर यहीं ठहरो9¹ ॥


दुष्य० । इस समय मेरे चित्र को सच्चा असमञ्जस है क्योंकि दोनों कार्य दूर दूर पर हैं9² । (सोचना हुआ) हे सखा तुझ से भी तौ माता पुत्र कहकर बोली है9³ । इस से त ही नगर को जा और कह दे कि हम को तपस्वियों का कार्य करना अवश्य है।


माढ० । यह तो सब करूंगा। परंतु तुम कहीं ऐसा तो नहीं9³a समझे हो कि मैं राक्षसों से डर गया हूं। दुय । (मुसक्याकर) नहीं। तू बड़ा वीर है । तू क्यों डरेगा॥ माढ । अब मैं राजा का छोटा भाई हूं या नहीं।


दुष्य० । हां टीक है । इसी लिये तेरे साथ को9³b भीड़ भाड़ भी चाहिये। इन सब को अपने साथ ले जा क्योंकि तपोवन में इतना ठौर भी नहीं है।


माढ० । तौ तौ9⁴ मैं राजा ही हो गया ॥


दुष्य० । (साप ही आप) यह ब्राह्मण बड़ा चपल है । कहीं95 हमारी लगन का वृत्तान्त रनवास में न कह दे । अब इस को कुछ धोखा देना चाहिये । (मादष्य का हाथ पकड़कर) हे मित्र मैं केवल ऋषियों का बड़प्पन रखने को इस तपोवन में जाऊंगा। यह तू निश्चय जान कि तपस्वी की कन्या शकुन्तला के कारण नहीं जाता हूं। देख जो कन्या हरिणियों के साथ रही है और शृङ्गार रस के मरम नहीं जानती है उस से क्योंकर मेरा मन लगेगा। उस का वृतान्त जो मैं ने तुझ से कहा था केवल मन बहलाने की बात थी ॥