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Act VI.]
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SAKUNTALA.


द्वार॰। इसी उदासी के कारण वसन्तोत्सव बरज दिया गया है॥

दो॰ चेरी। यह बरजना बहुत योग्य है॥

(नेपथ्य में) गैल करो। महाराज आते हैं।

द्वार॰। (कान लगाकर) हे सखियो राजा आते हैं। अब तुम जाओ॥ (दोनों गई)

(दुष्यंत पछताता हुआ आया और आगे आगे एक कञ्चुकी और साथ माढव्य आया)

द्वार॰। (राजा की ओर देखकर) सत्य है तेजस्वी पुरुष सभी अवस्था में शोभायमान होते हैं। हमारे स्वामी यद्यपि उदासी में हैं तो भी कैसे दिव्य दिखाई देते हैं। महाराज ने शृङ्गार का त्याग कर दिया है। और शरीर ऐसा दुर्बल हो गया है कि भुजबंद सरक सरककर कलाई पर आता है। गहरी स्वास लेते लेते होठों की लाली सूख गई है। और जागने और चिन्ता करने से आंखें उनीदी हो रही हैं। तौ भी अपने तेजों के गुण से ऐसे दीप्तिमान हैं मानो सान का चढ़ा हीरा॥

मिश्रकेशी। (दुष्यन्त की ओर देखकर आप ही आप) शकुन्तला अपना अनादर और त्याग हुए पर भी इस राजा के विरह में व्यथित हो रही है। सो क्यों न हो यह इसी योग्य है॥

दुष्यन्त। (बहुत सोच में आगे बढ़कर) हे मन जब प्यारी मृगनयनी ने तुझे स्नेह की सुध दिखाई तब तू सोता ही रहा। अब पछताने को क्यों जगा है।

मिश्र॰। (आप ही आप) वह अन्त में सुख पावेहीगी॥

माढव्य। (आप ही आप) हमारे राजा को स्नेह की पवन के झोके ने फिर सताया। इस रोग की क्या औषधी करें॥

द्वार॰। (दुष्यन्त के पास जाकार) महाराज की जय हो। मैं वन उपवनों को देख आया। आप चलकर जहां इच्छा हो विश्राम कीजिये॥

दुष्य॰। (द्वारपाल की बात पर कुछ ध्यान न देकर) कञ्चुकी तुम राजमन्त्री से कह