चतुरिका । माढव्य तुम कृपा करके चित्र लिये" रहो । तब तक मैं महाराज की आज्ञा बजा लाऊं ॥
दुष्य० । नहीं । तुम जाओ। हमी" लिये रहेंगे ॥ (राजा ने चित्र ले लिया और चतुरिका गई)
माढ० । (आप ही आप) तुम तौ निर्मल जल की भरी नदी को छोड़ मृगतृष्णा को दौड़ते हो। (गट) महाराज इस में क्या कुसूर है ॥
मिश्र० । (आप ही आप)मेरे तो अब राजा उन बातों को भी लिखावेगा जिन से तपोवन में शकुन्तला के रहने का स्थान सुशोभित था ॥
दुष्य० । सुनो सखा। मैं चाहता हूं कि इस चित्र में मालिनी नदी बनाई जाय । उस की रेती में हंसों के जोड़े चुगते दिखाई दें। फिर आगे बढ़कर हिमालय पर्वत की तराई लिखी जाय जिस में हरिणों के झुंड चरते हों । और एक ओर वृक्ष खड़ा हो । उस वृक्ष की डालियों पर छाल के वस्त्र धूप में सूखते हों । और एक हरिणी खड़ी अपनी बाई आंख को धीरे धीरे करसालय के सींगों से खजा रही हो ।
माढ० । तुम चाहो सो लिखा लो । मेरे जान तो जितनी ठौर विना लिखी रही है इस में मुझी सी कुबड़ी तपस्विनी लिखानी चाहिये।
दुष्य० । (उस की बात पर ध्यान न करके)मैं कहना भूल ही गया कि प्यारो के चित्र में कुछ आभूषण भी लिखने चाहियें ॥
माढ० । कैसे ॥
मिश्न० । (आप ही आप) ऐसे जैसे वनयुवतियों के होते हैं ।
दुष्य० । देखो । चित्रबनानेवाली प्यारी के कान पर शिरस का गुच्छा
रखना और कपोलों पर फूलों का झुप्पा लटकाना भूल गई है। और
छाती पर शरच्चन्द्र को किरण के समान कोमल कमल को डांड़ियों का
हार भी बनाना रह गया है ॥