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[Act VI.
SAKUNTALA.

दुष्य॰। अब मैं इस भारी व्यथा को कैसे सहूं। जो चाहूं कि प्यारो से स्वप्न में मिलूं तौ नींद नहीं आती। और चित्र में देख कर मन बहलाऊं तो आंसू नहीं देखने देते॥

मिश्र॰। (आप ही आप) शकुन्तला को त्यागने का कलङ्क राजा के सिर से अब इस विलाप ने धो दिया॥

(चतुरिका फिर आई)

चतुरिका। महाराज जब मैं रङ्गों का डिब्बा लेकर चली तभी....॥

दुष्य॰। (शीघ्रता से) तब क्या हुआ॥

चतु॰। तभी महारानी वसुमती पिङ्गला को साथ लिये आईं और मेरे हाथ से डिब्बा छीनकर कहा कि डिब्बा ला। इसे मैं ही महाराज को चलकर दूंगी॥

माढ॰। भला हुआ जो तू बच आई॥

चतु॰। रानी का वस्त्र एक कांटे के वृक्ष में अटक गया। उसे छुड़ाने में पिङ्गला लगी। तब तक मैं निकल आई॥

दुष्य॰। हे सखा माढव्य मैं रानी वसुमती का मान बहुत रखता हूं। इस से गर्वित हो गई है। अब चित्र छुपाने का उपाय कर॥

माढ॰। (आप ही आप) तुम ही छपा लो तो अच्छा है (यह कह कर चित्र को लेकर उठा)(प्रगट) जो तुम मुझे रनवास की ऊंची भीति पर चढ़ा दो तौ इस चित्र को ऐसा छुपाऊं कि कोई न देख सके॥ (बाहर गया)

मिश्न॰। (आप ही आप) आहा राजा अपने धर्म को कैसा पहचानता है कि यद्यपि दूसरी पर आसक्त है तो भी अपने अगले वचन का निर्वाह करता है॥

(एक द्वारपाल पत्र हाथ में लिये आया)

द्वारपाल। महाराज की जय हो॥

दुष्य॰। द्वारपाल तुम ने इस समय महारानी वसुमती को तो नहीं देखा है॥