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SAKUNTALA.
FACT TI.
दुय । अब मैं इस भारी व्यथा को कैसे सहं । जो चाहूं कि प्यारो
से स्वप्न में मिलूं तौ नींद नहीं आती । और चित्र में देख कर मन
बहलाऊं तो आंसू नहीं देखने देते ॥
मिट । (आप ही प्राप) शकुन्तला को त्यागने का कलङ्क राजा के सिर
से अब इस विलाप ने धो दिया ॥
(चतुरिका फिर भाई)
चतुरिका । महाराज जब मैं रङ्गों का डिब्बा लेकर चली तभी . . . . ॥
दुष्य। शीघ्रता से तब क्या हुआ ॥
चतु । तभी महारानी वसुमती पिङ्गला को साथ लिये आई और
मेरे हाथ से डिवा छीनकर कहा कि डिया ला । इसे मैं ही महाराज
को चलकर दूंगी॥
माढ० । भला हुआ जो तू बच आई ॥
चतु० । रानी का वस्त्र एक कांटे के वृक्ष में अटक गया । उसे छुड़ाने
में पिङ्गला लगी। तब तक मैं निकल आई ॥
दुष्य० । हे सखा माढव्य मैं रानी वसुमतौ का मान बहुत रखता हूं।
इस से गर्वित हो गई है । अब चित्र छुपाने का उपाय कर ॥
माढ० । (साप ही भाप) तुम ही छपा लो तो अच्छा है (यह कह कर पिच को
लेका उठा) । (प्रगट) जो तुम मुझे रनवास की ऊंची भीति पर चढ़ा दो तौ
इस चित्र को ऐसा छपाऊं कि कोई न देख सके ॥ (बाहर गया)
मिश्न। (साप ही पाप) आहा राजा अपने धर्म को कैसा पहचानता
है कि यद्यपि दूसरी पर आसक्त है तो भी अपने अगले वचन का
निर्वाह करता है ॥
(एक द्वारपाल पत्र हाथ में लिये आया)
द्वारपाल । महाराज की जय हो ॥
दुष्य। हारपाल तुम ने इस समय महारानी वसुमती को तो नहीं
देखा है ।।
पृष्ठ:Sakuntala in Hindi.pdf/९६
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