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[ACT VI.
SAKUNTALA.

प्रजा में जिस किसी को किसी प्यारे बांधव का वियोग हो वह दुष्यन्त को अपना धर्म का वांधव समझे॥

द्वार॰। यही ढंढोरा हो जायगा॥ (बाहर गया)

(दुष्यन्त सोच में बैठा हुआ द्वारपाल फिर आया)

द्वार॰। महाराज आप की आज्ञा की नगर में बड़ी बड़ाई हुई॥

दुष्य॰। (गहरी सांस भरकर) जब कोई बड़ा मनुष्य बिना संतान मरता है तौ उस की संपत्ति यों ही विराने घर जाती है। यही वृत्तान्त किसी दिन पुरुवंशियों के संचय किये धन का होना है॥

द्वार॰। ईश्वर ऐसा अमङ्गल न करे॥ (बाहर गया)

दुष्य॰। धिक्कार है मुझे कि मैं ने प्राप्त हुए सुख को लात मारी॥

मिश्र॰। (आप ही आप) निश्चय इस ने यह अपनी निन्दा अपने जी से की होगी।

दुष्य॰। हाय मैं बड़ा अपराधी कि मैं ने अपनी धर्मपत्नी को जो किसी दिन पुरुवंश की प्रतिष्ठा होती ऐसे त्याग दिया जैसे कोई अपनी बोई धरती को फल आने के समय छोड़ दे।

मिश्र॰। (आप ही आप) सब ने तो नहीं छोड़ दिया। क्या आश्चर्य है कि फिर तुझे मिले॥

चतुरिका। (आप ही आप) मन्त्री निर्देई ने उत्पात का भरा पत्र भेज राजा को क्या दशा कर दी है। देखो आंसुओं से बहा जाता है॥

दुष्य॰। हाय मेरे पितरों को नित्य यह खटका लगा रहता होगा कि जब दुष्यन्त संसार से उठ जायगा तब कौन हम को पिण्ड देगा। मेरे पीछे कौन इस वंश के आद्धादिक करेगा। हाय अब तक तौ मेरे कुल के निपुत्री पितरों को मेरे हाथ से वस्त्र का निचोड़ा जल तौ भी मिल जाता था। फिर यह भी न मिलेगा॥

मिश्र॰। (आप ही आप) राजा की आंखों पर इस समय मोह का ऐसा अञ्चल पड़ा है मानो सुन्दर दीपक की ज्योति में अंधेरा मूझे॥