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आत्म-कथा : भाग २

मुक्तानंदका यह वचन उनकी जबानपर तो रहता ही था, पर उनके हृदयमें भी अंकित हो रहा था।

खुद हजारोंका व्यापार करते, हीरेमोतीकी परख करते, व्यापारकी गुत्थियां सुलझाते, पर वे बातें उनका विषय न थीं। उनका विचार- उनका पुरुषार्थ तो- आत्म-साक्षात्कार- हरिदर्शन था। दूकानपर और कोई चीज हो या न हो, एक-न-एक धर्म-पुस्तक और डायरी जरूर रहा करती। व्यापारकी बात जहां खतम हुई कि धर्म-पुस्तक खुलती अथवा रोजनामचेपर कलम चलने लगती। उनके लेखोंका संग्रह गुजरातीमें प्रकाशित हुआ है, उसका अधिकांश इस रोजनामचेके ही आधारपर लिखा गया है। जो मनुष्य लाखोंके सौदेकी बात करके तुरंत आत्मज्ञानकी गूढ़ बातें लिखने बैठ जाता है वह व्यापारीकी श्रेणीका नहीं, बल्कि शुद्ध ज्ञानीकी कोटिका है। उनके संबंधमें यह अनुभव मुझे एक बार नहीं अनेक बार हुआ है। मैंने उन्हें कभी गाफिल नहीं पाया। मेरे साथ उनका कुछ स्वार्थ न था। मैं उनके बहुत निकट समागममें आया हूं। मैं उस वक्त एक ठलुआ बैरिस्टर था। पर जब मैं उनकी दुकानपर पहुंच जाता तो वह धर्म-वार्ताके सिवा दूसरी कोई बात न करते। इस समयतक मैं अपने जीवनकी दिशा न देख पाया था; यह भी नहीं कह सकते कि धर्म-वार्ताओंमें मेरा मन लगता था। फिर भी मैं कह सकता हूं कि रायचंदभाईकी धर्म-वार्ता मैं चावसे सुनता था। उसके बाद मैं कितने ही धर्माचार्योंके संपर्कमें आया हूं, प्रत्येक धर्मके आचार्योंसे मिलनेका मैंने प्रयत्न भी किया है; पर जो छाप मेरे दिलपर रायचंदभाईकी पड़ी, वह किसी की न पड़ सकी। उनकी कितनी ही बातें मेरे ठेठ अंतस्तलतक पहुंच जाती। उनकी बुद्धिको मैं आदरकी दृष्टिसे देखता था। उनकी प्रामाणिकतापर भी मेरा उतना ही आदर-भाव था। और इसमें मैं जानता था कि वह जान-बूझकर उल्टे रास्ते नहीं ले जायेंगे एवं मुझे वही बात कहेंगे, जिसे वह अपने जीमें ठीक समझते होंगें। इस कारण मैं अपनी आध्यात्मिक कठिनाइयोंमें उनकी सहायता लेता।

रायचंदभाईके प्रति इतना आदर-भाव रखते हुए भी मैं उन्हें धर्मगुरुका स्थान अपने हृदयमें न दे सका। धर्म-गुरुकी तो खोज मेरी अबतक चल रही है।

हिंदू-धर्ममें गुरुपदको जो महत्त्व दिया गया है उसे मैं मानता हूं। 'गुरु बिन होत न ज्ञान' यह वचन बहुतांशमें सच है। अक्षर-ज्ञान देनेवाला शिक्षक