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आत्म-कथा : भाग ३

और उसका पालन करना बाकी था । भारतवर्ष तो कंगाल है । लोग धन कमाने के लिए विदेश जाते हैं। मैंने सोचा, उनकी कमाईका कुछ-न-कुछ अंश भारतवर्षको आपत्तिके समय मिलना चाहिए । भारत १८९७ ई० में तो अकाल पड़ा ही था । १८९९में एक और भारी अकाल हुअा। दोनों अकाल के समय दक्षिण अफ्रीका खासी मदद गई थी। पहले अकालके समय जितनी रकम एकत्र हो सकी थी उससे बहुत ज्यादा रकम दूसरे अकालके समय गई थी। इसमें हमने अंग्रेजोंसे भी चंदा मांगा था और उनकी तरफसे अच्छी सहायता मिली थी । गिरमिटिया हिंदुस्लानियोंने भी अपनी तरफसे चंदा दिया था ।

इस तरह इन दोनों अकालके समय जो प्रथा पड़ी वह अभीतक कायम है और हम देखते हैं कि भारतवर्ष में सार्वजनिक संकटके समय दक्षिण अफ्रीकाके हिंदुस्तानी अच्छी रकमें भेजा करते हैं ।

इस तरह दक्षिण अफ्रीकाके भारतीयोंकी सेवा करते हुए मैं खुद बहुतेरी बात एक के बाद एक अनायास सीख रहा था । सत्य एक विशाल वृक्ष है। उसकी ज्यों-ज्यों सेवा की जाती है त्यों-त्यों उसमें अनेक फल आते हुए दिखाई देते हैं । उनका अंत ही नहीं होता। ज्यों-ज्यों हम गहरे पैठते हैं त्यों-त्यों उसमेंसे रत्न निकलते हैं; सेवाके अवसर हाथ आते ही रहते हैं ।

१२

देश-गमन

लड़ाईके कामसे मुक्त होने के बाद मैंने सोचा कि अब मेरा काम दक्षिण अफ्रीका में नहीं, बल्कि देसमें है। दक्षिण अफ्रीकामें बैठे-बैठे में कुछ-न-कुछ सेवा तो जरूर कर पाता था, परंतु मैंने देखा कि यहां कहीं मेरा मुख्य काम धन कमाना ही न हो जाय ।

देससे मित्र लोग भी देस लौट आने के लिये आकर्षित कर रहे थे। मुझे भी जंचा कि देस जानेसे मेरा अधिक उपयोग हो सकेगा। नेटालमें मि० खान और मनसुखलाल नाजर थे ही ।

मैंने साथियों से छुट्टी देनेका अनुरोध किया। बड़ी मुश्किलसे उन्होंने