पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३९३

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अत्मि-कथा : भाग ४ बह अपनी व्यापार-संबंधी भी बहुत-सी बातें मुझसे किया करते थे, फिर भी एक बात मुझसे छिपा रखी थी। वह चुंगी चुरा लिया करते थे । बंबई-कलकत्तेसे जो माल मंगाते उसकी चुंगीमें चोरी कर लिया करते थे। तमाम अधिकारियोंसे उनका. राह-रसूक अच्छा था। इसलिए किसीको उनपर शक नहीं होता था। जो बीजक वह पेश करते उसपरसे चुंगीकी रकम जोड़ ली जाती । शायद कुछ कर्मचारी ऐसे भी होंगे, जो उनकी चोरीकी ओरसे आंखें मूंद लेते हों । . . परंतु आखा भगतकी यह वाणी कहीं झूठी हो सकती है ? --- 'काचो पारो खावो अन्न, तेवं छे चोरी नुं धन ।” ( यानी कच्चा पारा खाना और चोरीका धन खाना बराबर है।) एक बार पारसी रुस्तमजीकी चोरी पकड़ी गई । तब वह मेरे पास दौड़े आये । उनकी आंखोंसे आंसू निकल रहे थे। मुझसे कहा-- “भाई, मैंने तुमको धोखा दिया है। मेरा पाप आज प्रकट हो गया है। मैं चुंगीकी चोरी करता रहा हूं। अब तो मुझे जेल भोगने के सिवा दूसरी गति नहीं है। बस, अब में बरवाद हो गया। इस अाफत मेंसे तो आप ही मुझे बचा सकते हैं। मैंने वैसे आपसे कोई बात छिपा नहीं रक्खी है; परंतु यह समझकर कि यह व्यापारकी चोरी है, इसका जिक्र आपसे क्या करूं, यह बात मैंने आपसे छिपाई थी । अब इसके लिए पछताता हूँ ।" मैंने उन्हें धीरज और दिलासा देकर कहा--- " मेरा तरीका तो आप जानते ही हैं । छुड़ाना-न-छुड़ाना तो खुदके हाथ है। मैं तो आपको उसी हालत में छुड़ा सकता हूं जब आप अपना गुनाह कबूल कर लें ।' | यह सुनकर इस भले पाका अह्रा उतर गया । | " परंतु मैंने आपके सामने कबूल कर लिया, इतना ही क्या काफी नहीं है ? " रुस्तमजी सेठने पूछा ।। | " अापने कसूर तो सरकारका किया है, तो मेरे सामने कबूल करने से क्या होगा ? ” मैंने धीरेसे उत्तर दिया । : " अंतको तो मैं वही करूंगा, जो आप बतायेंगे; परंतु मेरे पुराने वकीलकी भी तो सलाह ले लें, वह मेरे मित्र भी हैं।' पारसी रुस्तमजी ने कहा।