पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३९६

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पांचवां भाग पहला अनुभव | मेरे देश पहुंचनेसे पहले ही फिनिक्ससे देश पहुंचनेवाले लोग वहां पहुंच चुके थे । हिसाब तो हम लोगोंने यह लगाया था कि मैं उनसे पहले पहुंच जाऊँगा; परंतु मैं महायुद्धके कारण लंदनमें रुक गया था, इसलिए मेरे सामने सवाल यह था कि फिनिक्स-वासियोंको रक्खू कहां ? मैं चाहता तो यह था कि सब एक साथ ही रह सकें और फिनिक्स-अाश्रमका जीवन बिता सकें तो अच्छा । किसी आश्रमके संचालकसे मेरा परिचय भी नहीं था कि जिससे मैं उन्हें वहां जानेके लिए लिख देती । इसलिए मैंने उन्हें लिखा था कि वे एंड्रूज साहबसे मिलकर उनकी सलाहके मुताबिक काम करें । पहले वे कांगड़ी-गुरुकुल रक्खे गये। वहां स्वर्गीय श्रद्धानंदजीने उन्हें अपने बच्चोंकी तरह रक्खा। उसके बाद वे शांति-निकेतनमें रक्खे गये, जहां कविवर और उनके समाजने उनपर उतनी ही प्रेम-दृष्टि की । इन दो स्थानोंपर जो अनुभव उन्हें मिला वह उनके तथा मेरे लिए बड़ा उपयोगी साबित हुआ। | कविवर, श्रद्धानंदजी और श्री सुशील रुद्रको मैं एंड्रूजको 'त्रिमूर्ति मानता था । दक्षिण अफ्रीकामें वह इन तीनोंकी स्तुति करते हुए थकते नहीं थे । दक्षिण अफ्रीकामें हमारे स्नेह-सम्मेलनकी बहुत-सी स्मृतियोंमें यह सदा मेरी आंखों के सामने नाचा करती है कि इन तीन महापुरुषों नाम तो उनके हृदयमें और ग्रोठोंपर रहते है। थे। सुशील रुद्रके परिचय में भी एंड्रूजने मेरे बच्चोंको ला दिया था। रुद्रके पास कोई आश्रम नहीं था, उनका अपना घर ही था; परंतु उस घरका कब्जा उन्होंने मेरे इस परिवारको दे दिया था। उनके बाल-बच्चे इनके साथ एक ही दिनमें इतने हिल-मिल गये थे कि ये फिनिक्सको भूल गये ।।