पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३९९

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आत्म-कथा : भाग १ कि समितिके आदर्श और उसकी कार्यप्रणाली मुझसे भिन्न थी । इसलिए वे दुविधामें थे कि मुझे सदस्य होना चाहिए या नहीं । गोखलेकी यह मान्यता थी कि अपने आदर्शपर दृढ़ रहने की जितनी प्रवृत्ति मेरी थी उतनी ही दूसरों आदर्श की रक्षा करने और उनके साथ मिल जानेका स्वभाव भी था । उन्होंने कहा- “परंतु हमारे साथी आपके दूसरों को निभा लेनेके इस गुणको नहीं पहचान पाये हैं। वे अपने आदर्शपर दृढ़ रहने वाले स्वतंत्र और निश्चित विचारके लोग है। मैं आशा तो यही रखता हूं कि वे आपको सदस्य बनाना मंजूर कर लेंगे; परंतु यदि ने भी करें तो आप इससे यह तो हर्गिज न समझेंगे कि आपके प्रति उनका प्रेम या मादर कम है। अपने इस प्रेमको अखंडित रहने देने के लिए ही वे किसी तरहकी जोखिम उठाने से डरते हैं; परंतु आप समिति बाकायदा सदस्य हों, या न हों, मैं तो अापको सदस्य मानकर ही चलूंगा ।" मैंने अपना संकल्प उनपर प्रकट कर दिया था। समितिका सदस्य • बने या न बनू, एक आश्रमकी स्थापना करके फिनिक्सके साथियोंको उसमें रखकर मैं बैठ जाना चाहता था । गुजराती होने के कारण गुजरात के द्वारा सेवा करनेकी पूजी मेरे पास अधिक होनी चाहिए, इस विचारसे गुजरातमें ही कहीं स्थिर होनेकी इच्छा थी । गोखलेको यह विचार पसंद आया और उन्होंने कहा-- “जरूर आश्रम स्थापित करो । सदस्योंके साथ जो बातचीत हुई है। उसका फल कुछ भी निकलता रहे, परंतु आपको आश्रमके लिए धन लो मुझ हीसे लेना है। उसे मैं अपना ही आश्चम समझंगा ।" यह सुनकर मेरा हृदय फूल उठी। चंदा मांगनेकी झंझट से बचा, यह, समझकर बड़ी खुशी हुई और इस विश्वाससे कि अब मुझे अकेले अपनी जिम्मेदारी पर कुछ न करना पड़ेगा, बल्कि हरेक उलझनके समय मेरे लिए एक पथदर्शक यहां है, ऐसा मालूम हुआ मानो मेरे सिरका बोझ उतर गया । | गोखलेने स्वर्गीय डाक्टर देवको बुलाकर कह दिया---- “गांधीका खाता . • अपनी समितिमें डाल लो और उनको अपने आश्रमके लिए तथा सार्वजनिक • कामोंके लिए जो कुछ रुपया चाहिए, वह देते जाना ।". . अब मैं पूना छोड़कर शांति-निकेतन जानेकी तैयारी कर रहा था। अंतिम रातको गोखलेने खास मित्रोंकी एक पार्टी इस विधिसे की, जो मुझे रुचिकर होती।