पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४१२

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अध्याय ७ : कुर्भ विरोध न करता। उस समय मेरी हालत यह थी कि यदि तरह-तरहकी चीजें होती तो वे आंख और जीभको रुचती थीं । खानेके वक्तका कोई बंधन तो था ही नहीं। मैं खुद जल्दी खाना पसंद करता था, इसलिए बहुत देर नहीं होती थी; हालांकि रातके आठ-नौ तो सहज बज ही जाते ।। इस साल (१९१५) हरद्वारमें कुंभक मेला पड़ता था। उसमें जानेकी मेरी प्रबल इच्छा थी। फिर मुझे महात्मा मुंशीरामजीके दर्शन भी करने थे । कुंभके मेलेके अवसरपर गोखलेके सेवक-समाजने एक बड़ा स्वयं-सेवक दल भेजा था। उसकी व्यवस्थाका भार श्री हृदयनाथ कुंजरूको सौंपा गया था । स्वर्गीय डाक्टर देव भी उसमें थे। यह बात तय पाई कि उन्हें मदद देनेके लिए में भी अपनी टुकड़ीको ले जाऊं। इसलिए मगनलाल गांधी शांतिनिकेतनवाली हमारी टुकड़को लेकर मुझसे पहले हुरहार गये थे। मैं भी रंगुन्से लौटकर उनके साथ शामिल हो गया । कलकत्तेसे हरद्वार पहुंचते हुए रेल में बड़ी मुसीबत उठानी पड़ी । डिब्बों में कभी-कभी तो रोशनी तक भी न होती । सहारनपुरसे तो यात्रियोंको भवेशी की तरह मालगाड़ीके डिब्बोंमें भर दिया था। खुले डिब्बे, ऊपरसे मध्याह्न का सूर्य तप रहा था, नीचे लोहेकी जमीन गरम हो रही थी । इस मुसीबतका क्या पूछना ? फिर भी भाबुक हिंदू प्याससे गला सूखने पर भी ‘इस्लामी' पानी' आता तो नहीं पीते । जब 'हिंदू-पानी की आवाज आती तभी पानी पीते । यही भावुक हिंदू दवा में जब डाक्टर शराब देते हैं, मुसलमान या ईसाई पानी देते हैं, मांसका सत्व देते हैं, तब उसे पीनेमें संकोच नहीं करते। उसके संबंधमें तो पूछ-ताछ करनेकी झावश्यकता ही नहीं समझते ।। । मैंने यह बात शांति-निकेतनमें ही देख ली थी कि हिंदुस्तान में भंगीका काम करना हमारा विशेष कार्य हो जायगा । स्वयंसेवकों के लिए वहां किसी धर्मशालामें तंबू ताने गए थे। पाखानेके लिए डॉक्टर देवने गड्ढे खुदवाए थे; परंतु उनकी सफाईका इंतजाम तो वह उन्हीं थोड़ेसे मेहतरोसे करा सकते थे, जो ऐसे समय वेतन पर मिल सकते थे। ऐसी दशामें मैंने यह प्रस्ताव किया कि गड्ढों में भूलको समय-समय पर मिट्टी से ढांकता.तथा और तरहसे सफाई रखना, यह काम फिनिक्सके स्वयंसेवकोंके जिम्मे किया जाय । डाक्टर देवने इसे खुशी