पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४४४

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अध्याय १७ : साथी ४२७ खेतों में मजदूरी कराते । इस समय मदोंको दस-पैसेसे ज्यादा मजदूरी नहीं मिलती थी । स्त्रियों को छ: पैसा, और बच्चों को तीन ! जिस किसी को चार आना मजदूरी मिल जाती, वह भाग्यवान समझा जाता था । -- अपने साथियों के साथ विचार करके पहले तो छः गांवों में बच चोंके लिए पाठशाला खोलने का विचार हुआ । शर्त यह थी कि उन गांवों के अगुआ मकान और शिक्षक के खाने का खर्च दें और दूसरे खर्च का इंतजाम हम लोग कर दें । यहां के गांवों में रुपये-पैसे की बहुतायत नहीं थी; परंतु लोग अनाज वगैरा दे सकते थे, इसलिए वे अनाज देनको तैयार हो गये । अब यह एक महाप्रश्न था कि शिक्षक कहां से लावें ? बिहा रमें थोड़ा वेतन लेनेवाले या कुछ न लेने वाले अच्छे शिक्षकों का मिलना कठिन था । मेरा खयाल यह था कि बच्चों की शिक्षाका भार मामूली शिक्षक को न देना चाहिए । शिक्षक को पुस्तक-ज्ञान चाहे कम हो; परंतु उसमें चरित्र-बल अवश्य होना चाहिए । इस कामके लिए मैंने आमतौर स्वयंसेवक मांगे । उसके जवाबमें गंगाधरराव देशपांडेन बाबासाहब सोमण और पुंडलीक को भेजा । बंबई से अवंतिकाबाई गोखले आई । दक्षिणसे श्रानंदीबाई आ गई । मैने छोटेलाल, सुरेंद्रनाथ तथा प्रपन लड़के देवदास को बुला लिया । इन्हीं दिनों महादेव देसाई और नरहरि परीख मुझसे मिले । महादेव देसाईकी पत्नी दुर्गाबहन तथा नरहरि परीखकी पत्नी मणिबहन भी आ पहुंचीं । कस्तूरबाईको भी मैंने बुला लिया था । शिक्षकों और शिक्षिकाओंका यह संघ काफी था । श्रीमती अवंतिकाबाई और श्रानंदीबाई तो पढ़ी-लिखी समझी जा सकती थीं; परंतु मणिबहन परीख और दुर्गाबहन देसाई थोड़ी-बहुत गुजराती जानती थीं; कस्तूरबाईको तो नहींके बराबर हिंदी का ज्ञान था । अब सवाल यह था कि ये बहनें बालकों को हिंदी पढ़ावेंगी किस तरह ? बहनों को मैंने दलीलें देकर समझाया कि बालकोंको व्याकरण नहीं बल्कि रहन-सहन सिखाना है । पढ़ने-लिखनेकी अपेक्षा, उन्हें सफाईके नियम सिखाने की जरूरत है। हिंदी, गुजराती और मराठीमें कोई भारी भेद नहीं है, यह भी उन्हें बताया और समझाया कि शुरूमें तो सिर्फ गिनती और वर्णमाला सिखानी होगी । इसलिए दिक्कत न आयगी । इसका फल यह हुझा कि बहनोंकी पढ़ाईका काम