पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/४८४

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अध्याय ३१ : वह सप्ताह !--१ ४६७ था । नमकपर लगनेवाला कर बहुत ही अखरता था । उसे उठवानेके लिए बहुत प्रयत्न हो रहे थे । इसलिए मैंने यह सुझाया था कि सभी कोई अपने घरमें बिना परवानेके नमक बनावें । दूसरा कानूनभंग सरकारकी, जब्त की हुई पुस्तकें छपाने व बेचनेके संबंधमें था । ऐसी दो पुस्तकें खुद मेरी ही थीं--'हिंद स्वराज्य' और ‘सर्वोदय' । इन पुस्तकोंको छपाना और बेचना सबसे सरल सविनय-भंग जान पड़ा । इसलिए इन्हें छपाया और सांझका उपवास छूटनेपर और चौपाटीकी विराट सभा विसर्जन होने के बाद इन्हें बेचनेका प्रबंध हुआ । सांझको बहुतसे स्वयंसेवक ये पुस्तकें बेचने निकल पड़े । एक मोटरमें मैं और दूसरीमें श्रीमती सरोजिनी नायडू निकली थीं । जितनी प्रतियां छपाई थीं उतनी बिक गईं । इनकी जो कीमत आती वह लड़ाईके खर्चमें ही काम आनेवली थी । प्रत्येक प्रतिकी कीमत चार आना रक्खी गई थी; किंतु मेरे या सरोजिनीदेवीके हाथमें शायद ही किसीने चार आने रक्खे हों । अपनी जेबमें जो कुछ मिल जाय, सभी देकर पुस्तक लेनेवाले बहुत आदमी पैदा हो गये । कोई दस रुपयेका तो कोई पांच रुपयेका नोट भी देते थे । मुझे याद है कि एक प्रतिके लिए तो ५०) का भी एक नोट मिला था । लोगोंको समझाया गया कि पुस्तक लेनेवालोंके लिए भी जेल जानेका खतरा है; किंतु थोड़ी देरके लिए लोगोंने जेलका भय छोड़ दिया था । सातवीं तारीखको मालूम हुआ कि जो किताब बेचनेकी मनाह़ी सरकारने की थी, सरकारकी दृष्टिसे वे बिकी हुई नहीं मानी जा सकतीं । जो बिकीं, वे तो उसकी दूसरी आवृति मानी जायगी, जब्त किताबोंमें वे नहीं ली जायंगी । इसलिए इस नई आवृत्तिको छापने, बेचने और खरीदनेमें कोई गुनाह नहीं माना जायगा । । लोग यह खबर सुनकर निराश हुए । इस दिन सवेरे चौपाटीपर लोगोंको स्वदेशी-व्रत तथा हिंदू-मुस्लिमऐक्यके के लिए इकट्ठा होना था । विट्ठलदासको यह पहला अनुभव हुआ कि उजला रंग होनेसे ही सब-कुछ दूध नहीं हो जाता । लोग बहुत ही कम इकट्ठे हुए थे । इनमें दोचार बहनोंका नाम मुझे याद हो आता है । पुरुष भी थोड़े ही थे । मैंने व्रतका मजमून गढ़ रक्खा था । उनका अर्थ उपस्थित लोगोंको खूब समझाकर उन्हें व्रत लेने दिया । थोड़े लोगोंकी मौजूदगीसे मुझे आश्चर्य न