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४८८ आत्म-कथा : भाग ५

लाला हरकिशनलालने इसकी संतोषजनक सुविधा कर देनेका बीड़ा उठाया। उन्होंने कहा कि जिस दिन मत लेना हो उस दिन दर्शकोंको न आने देंगे, सिर्फ प्रतिनिधि ही आयेंगे और मत गिना देने का जिम्मा मेरा; पर आप कांग्रेसकी बैठकमें गैरहाजिर नहीं रह सकते ।

अंतको मैं हारा। मैंने अपना प्रस्ताव बनाया और बड़े संकोच के साथ उसे पेश करता स्वीकार किया। श्री जिना और मालवीयजी समर्थन करनेवाले थे । भाषण हुए। मैं देख सकता था कि यद्यपि हमारे मतभेदमें कहीं कटुता न थी, भाषणमें भी दलीलोंके सिवा और कुछ न था, फिर भी सभा इतने मतभेद को सहन नहीं कर सकती थी, और उसे दुःख हो रहा था । सभा एकमत चाहती थी।

उधर भाषण हो रहे थे, पर इधर भेद मिटाने के प्रयत्न चल रहे थे। आपसमें चिठियां आ-जा रहीं थी। मालवीयजी तो हर तरहसे समझौता करने के लिए मिहनत कर रहे थे। इतनेमें जयरामदासने अपना सुझाव मेरे हाथमें रक्खा और बड़े मधुर शब्दों में मत देने के संकटसे प्रतिनिधियोंको बचा लेनेका अनुरोध मुझसे किया। मुझे वह पसंद आ गया । मालवीयजी की नजर तो चारों ओर आशाकी खोजमें फिर रही थी। मैंने कहा कि यह संशोधन दोनोंको स्वीकार हो सकता है । लोकमान्यको बताया, उन्होंने कहा, दासको पसंद हो तो मुझे आपत्ति नहीं है देशबंधु पिघल गये। उन्होंने विपिनचंद्र पाल की ओर देखा । मालवीयजीको अब पूरी आशा बंध गई और उन्होंने चिट्ठी हाथ से छीन ली। देशबंधुके मुंह से 'हाँ' शब्द अभी पूरा निकला ही नहीं था कि वह बोल उठे- " सज्जनों, आप यह जानकर प्रसन्न होंगे कि समझौता हो गया है।" फिर तो क्या पूछना था ? तालियोंकी हर्षध्वनिसे सारा मंडप गूंज उठा और लोगोंके चेहरोंपर जहां गंभीरता थी वहां खुशी चमक उठी।

यह प्रस्ताव क्या था, उसकी चर्चा करनेकी यहां जरूरत नहीं, क्योंकि यह प्रस्ताव कैसे हुआ, यही बताना मेरे इन प्रयोगोंका विषय है।

समझौतेने मेरी जिम्मेदारी बढ़ा दी ।