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श्रीचन्द्रावली

१७

कोऊ जरनि न जाननहारी बे-महरम सब लोय ।
    अपुनी कहत सुनत नहिं मेरी कोहि समुझाऊँ सोय ॥
    लोक-लाज    कुल  की  मरजादा दीनी है सब रवोय ।
    'हरीचंद'   एेसेहि   निबहैगी   होनो   होय  सो  होय ॥

परन्तु प्यारे, तुम तो सुननेवामे हो ? यह आश्चर्य है कि तुमहारे होते हमारी यह गति हो । प्यारे ! जिनको नाथ नहीं होते वे अनाथ कहाते हैं । (नेत्रो मे आँसू गिरते हैं) जो यही गति करनी थी तो अपनाया क्यों?

     पहिले मुसुकाइ लजाइ कुछू
                क्यौं चतै मुरि मो तन छाम कियों ।
     पुनि नैन लगाइ बढाइकै प्रीति
                निबाहन को क्यौं कलाम कियो ॥
     'हरिचन्द' भए निरमोही इतै निज
                नेह को यों परिनाम कियो।
      मन माहिं जो तोरन ही  की हुती,
                अपनाइकै क्यों बदनाम कियो ॥

प्यारे, तुम बडे निरमोही हो । हा ! तुम्हे मोह भी नहीं आता ? (आँख में आँसू भरकर) प्यारे ! इतना तो वे नहीं साताते जो एहिले मुख देते हैं; तो तुम किस नाते इतना सताते हो? क्योंकि -

     जिय सूधी चितौन की साधै रही,
                 सदा बातन मैं अनरवाय रहे ।
     हँसिकै 'हरिचन्द' न बोले कभूँ ,
                 जय दूरहि सों ललचाय रहे ॥
     नाहिं नेकु दया उर आवत है,
                 करिके कहा ऐसे सुभाय रहे ।
     सुख कौन सो प्यारे दियो पहिले,
                 जिहिके बदले यों सताय रहे ॥

हा ! क्या तुमहें लाज भी नहीं आता ? लोग तो सात पैर संग चलते हैं उसका जन्म भर निबाह करते हैं और तुमके नित्य की प्रीति का निबाह नहीं है ! नहीं नहीं तुम्हारा तो ऐसा सुभाव नहीं था, यह नई बात है; यह बात नई है या तुम आप नये हो गये हो? भला कुछ तो लाज करो ।

    कित कों ढरिगो वह प्यार सबै,
क्यों रुखाई नई यह साजत हौ।