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श्रीचन्द्रावली

श्रीचन्द्रावली ४१ कै पियपद उपमान जानि एहि निज उर धारत । कै मुख करि भंगन मिस अस्तुति उच्चारत । कै बज-तियगन-बदन-कमल की झलकत झाई। कै अज हरिपद-परस हेत कमला बहु आई। कै सात्विक अरु अनुराग दोउ ब्रजमण्डउ बगरे फिरत । कै जानि लच्छमी-भौन एहि करि सतधा निज जल धरत ।। तिन पै जेहि छिन चंद-जोति राका निसि आवति । जल मै मिलिकै नभ अवनी लौ तान तनावति ॥ होत मुकुरमय सबै तबै उज्ज्वल इक ओभा । तन मन नैन जुड़ात देखि मुन्दर सो सोभा ॥ सो को कबि जो छबि कहि सकै ता छन जमुना नीर को । मिलि अवनि और अम्बर रहत छबि इकसी नभ तीर की ।। परत चन्द्र-प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो । लोल लहर लहि नचत कबहुँ मोई मन भायो । मनु हरि दरसन हेत चन्द जल बसत सुहायो । के तरग कर मुकुर लिए सोभित छवि छायो । के रास रमन मै हरि-मुकुट-आभा जल दिखरात है । कै जल-उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है । कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत । पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।। मनु ससि भरि अनुराग जमुनजल लोटत डोलै । कै तरंग की डोर हिंडोरन करत कलोलै ॥ कै बालगुड़ी नभ मैं उड़ी सोहत इत्त-उत धावती । कै अवगाहत डोलत कोऊ व्रजरमनी जल आवती ।। मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटि जात जमुन जल । कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अविकल || कै कालिन्दी नीर तरग जितो उपजावत । तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ॥ कै बहुत रजत चकई चलत के फुहार जल उच्छरत । कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत || कुजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत । कहुँ कारण्डव उड़त कहूँ जलकुक्कुट धावत ।।