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श्रीचन्द्रावली

मलार―मलार राग।

झोंटन―पेंग।

घन स्याम―काले बादल। घनस्याम―श्रीकृष्ण।

घहरि-घरि―गरजने का गम्भीर शब्द करना।

इन्द्रधनु―बनमाल―तुलसी, कुद, मदार, परजाता और कमल इन पाँँच चीजों से वनमाला बनती है।

बगमाल―मोतीलर―सफेद रग होने के कारण दोनों में साम्य है।

छहरि-छहरि―छितरा जाती है, चारों ओर फैल जाती है अर्थात् श्रीकृष्ण की शोभा सामने आ जाती है।

फहरि-फहरि―फहरना, वायु में उड़ना।

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चौथा अंक

जोगिनी―साधुनी, तपस्विनी।

अलख-अलख―अलख―अगोचर, अपत्यक्ष, ईश्वर का एक विशेषण। परमात्मा के नाम पर भिक्षा माँँगना, अथवा पुकार कर परमात्मा का स्मरण करना या कराना।

आदेश आदेश गुरु को―गुरु की आज्ञा। गुरु की दुहाई देना।

बंक―टेढ़ी।

छकोहैं―छके हुए (अपने प्रेम-रस के उन्माद के कारण)।

कोपन―आँख का कोना।

कान छियैं―कान छूते है (नेत्रो के बडे होने का चिह्न है)।

बारि फेरि जल सबहिं पियैं―सब निछावर होते हैं।

नागर मनमथ―चतुर काम देव।

सेली―वह बद्धी या माला जिसे योगी लोग गले में डालते या सिर में लपेटते है।

सोहिनियाँ―सुहावनी, शोभा देनेवाली।

मातै―मदमस्त।

बिरह-अगिनियाँ―विरहाग्नि।

चितवन मद अलसाई―मत्तता के कारण नेत्र अलसाए हुए है।

गावत बिरह बधाई―विरह का गीत गाती है।

खुमारी―नशा।

खुभना―चुभना, घुसना, धँसना।