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तुलसी चौरा :: १०७
 

'वहां तो जब तक परिचय नहीं करवाया जाता, लोग बाग पूछते तक नहीं' रवि ने कहा तो शर्मा ची हँस दिए।

'तुम पश्चिमी सभ्यता के बारे में कहते रवि, यहाँ तो नाभि नाला से अलग होते ही शिशु दूसरों में रुचि लेने लगता है।'

वे पहुँचे तो इरैमुडिमणि की दुकान में भीड़ नहीं थी। तीन तरफ दीवारें खड़ी की गयी थी। न फूलों का हार न आम की पत्तियों का तोरण, कोई हल्दी, चन्दन, कुंकुम नहीं। बस, उनके आन्दोलन के नेता की बड़ी तस्वीर टंगी थी। इरैमुडिमणि सबका स्वागत कर रहे थे। लोगों के बैठने के लिए बैंचें पड़ी थीं। इरैमुडिमणि ने उन्हें बैठाया। चंदन लगाया और मिश्री खिलाई। कुछ देर बातें करते रहे। वे लोग चलने लगे तो इरैमुडिमणि शर्मा जी को एक ओर ले गए।

'अहमद अली को यह जगह नहीं मिली, इसलिए सीमावययर पूरे गाँव में बदनामी फैला रहा है। उसका कहना है कि मैं आस्तिकों से बैर मोल लेना चाहता हूँ, इसीलिए यह दुकान यहाँ लगायी है। सबको धमका रखा है कि कोई भी यहाँ से सामान नहीं खरीदेगा। मैं अच्छों के लिए अच्छा, बुरों के लिए बुरा। व्यापार के लिए सिद्धान्तों को हवा में नहीं उड़ा सकता। अपने सिद्धान्तों को दूसरों पर मैं थोपता भी नहीं। मैं जानता हूँ किस तरह ईमानदारी से व्यवसाय चलाया जा सकता है। हजार सीमावय्यर पैदा हो जाएँ, वे कुछ नहीं बिगाड़ सकते।'

'वह तो ठीक है, देशिकामणि। तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे अधिकार पर हमला कर रहा हूँ। यह मठ की जगह है। आस-पास के लोग धामिक हैं।

यहाँ कुछ दुकान का यह नास्तिक नाम, यह चित्र.... तुम्हें अट- पटा नहीं लगता?'

'हो तो, हो। मैं स्वांग नहीं भर सकता। व्यापार में घाटा हो जाए पर सिद्धान्त में घाटा न हो।" इरैमुडिमणि तैश में आ गए।