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१३४ :: तुलसी चौरा
 


लेगी। और आप लोग भी उसे देखेंगे।'

'पिछवाड़े चलें!' रवि ने पूछा।

'न, यहाँ तीसरा कौन है? यहीं ओसारे पर बैठ जाते हैं।'

बाऊ के हाथों में पँचांग, एक कागज और कलम था।

बह बात उनके मुँह से ही सुनना चाहता था। बचपन में पाठ कंठस्थ करते वक्त जिस तरह बैठा करता था। उसी तरह हाथ बांध- कर बैठ गया।

'क्यों रे, क्या है, तेरे मन में? तुम्हें पहले मुझे बताना चाहिये न, गैर लोग आकर मुझे बताएँ, भला कैसा लगता है। एक छोटी सी बात में तुम इतने असभ्य कब से हो गये?'

रवि को समझ में कुछ नहीं आया। वह तो मन में उत्तर तैयार कर रहा था कि शर्मा जी और आगे बोले, 'बात तो मुझे तय करनी है। तुम देशिकामणिं से कहो या वेणूकाका से क्या फायदा?'

'ठीक कहते हैं, बाऊ। हमने तो आपका मित्र समझ कर ही पूछा था।'

'मैंने तो तय कर लिया। तुम्हारी अम्मा से लेकर गाँव वालों को, कमली के बारे में, उसके यहाँ रहने के बारे में, कुछ नहीं बता पा रहा हूँ। स्वामखाह अफवाहों को ही बल मिल रहा है। ऐसे में मुझे लगता है, कि लोगों का मुँह बन्द करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि तुम दोनों का शास्त्र सम्मत विवाह कर दिया जाय। तुमने आते ही मुझसे पूछा था। पर अब मैं खुद तैयार हूँ।'

रवि को विश्वास नहीं हुआ था क्या सचमुच बाऊ ही है, उसे शक हुआ।

'सच बाऊ?' वह उत्साह में चीखा।

'तो क्या? मैं क्या मजाक कर रहा हूँ? इस माह के अन्त में एक मुहूर्त निकल रहा है। पर उसके माता पिता यहां नहीं हैं , उसका