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१४६ :: तुलसी चौरा
 

'क्या हुआ काकी। इतनी दुबली कैसे हो गयी।'

'आओ बिटिया, कब आयी?'

'सुबह आयी थी आपकी चीजें भी याद से लायी हूँ।'

'शादी में आया हो न।'

बसंती उनके स्वर से भाप नहीं पायी कि वे उसे सहज ढंग से पूँछ रही हैं या व्यंग्य में।'

'आप क्या समझती हैं, काकी, यहाँ आने के लिये बहाना चाहिए।'

'मैं तो आती जाती रहती हूँ।'

थोड़ी देर मौन छा गया। कामाक्षी का मौन आगे नहीं खिंच पाया।

अनर्गल बातें शुरू कर दी―'जैसे पुरुष अग्नि की उपासना करते हैं और उसे सदा प्रज्वलित रखते हैं, इस परिवार की औरतें पीढ़ियों से तुलसी का पूजन करती आयी हैं। इस परिवार को प्राप्त सौभाग्य लक्ष्मी की कृपा और श्रीदृष्टि―इस शारीरिक और आतंरिक शुद्धि से की गयी तुलसी पूजा का ही परिणाम है। दस पीढ़ियों के हाथों चला आ रहा या दीया इस परिवार की सुख शांति और संस्कृति की रक्षा करता है। कहते हैं, कई पीढ़ियों पहले रानी मंगम्मा एक व्रत नियम वाली ब्राह्मणी की तलाश में दीपक लिये भटकती रही थी। अंत में वह दीया इसी परिवार की एक बहू को दे डाला था। तब से इस परिवार की स्त्रियों को पीढ़ी दर पीढ़ी इस दीप को प्रज्वलित करने की योग्यता मिलती है। आजतक मैं उस दीपक को तुलनी चौरा में प्रज्वलित करती हूँ।'

इतना कहकर अपने सिरहाने से एक पेटी खींची और रेशमी कपड़े में लिपटा छोटा सा दीपदान उसके समीप कर दिया।

'मैं इस घर की नयी बहू बनकर आयी तो मेरी सास ने मुझे दिया।'

इतना कहती हुई रुक गयी।