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१४८ :: तुलसी चौरा
 

बसंती की समझ में नहीं आया वह उन्हें कैसे समझाये। काकी को एक ही चिंता थी कि बेटा उस फ्रेंच औरत के साथ हमेशा के लिये उनसे दूर हो जाएगा। काकी को उसने सविस्तार बताया कि कैसे करोड़पति पिता की इकलौती बेटी रवि के भरोसे यहाँ आयी है। काको ने कोई विरोध नहीं किया। शांत सुनती रही, यह अच्छा हुआ।

'अरे, हमें सब पता है तुम्हारी, रवि, बाऊ, सबकी इसमें मिली भागत है। सबने मिलकर मुझे उल्लू बनाया। मुझे तो मालूम था कि तुम इस बारे में मुझसे बातें करोगी।'

'मै कुछ गलत कह रही है, काकी। जो सच है वही तो कह रही हूँ। कमली बहुत बच्छी लड़की है।'

'तो होगी। हमें क्या? लास सोने का मूला हो, तो कोई आँखें तो नहीं फोड़ लेगा।'

'आप पर तो, उसकी अपार श्रद्धा है काकी। आपको तो भार- तीय संस्कृति के प्रतिमूर्ति कहती है।'

'हो, कह रही होगी, कि मैं पुरातन पंथी हूँ, क्यों?

'हाय राम! ऐसा नहीं है काकी। वह तो मज़ाक तक नहीं करती! वह आपको देवी मानती है।'

'पर मुझे वह अच्छी नहीं लगती।'

'पर काकी, आप ऐसा. मत कहिए। आपको तो काका के साथ मंडप में आना है। कन्यादान लेना हैं। हम लोग तो लड़की वाले है।'

'ऐसी बेमतलब की शादी और तिस पर लड़की वाले और लड़के वाले, हुँह ।'

'काकी, आप तो बड़ी हैं, बुजुर्ग हैं इस मंगल बेला में अशुभ क्यों बोल रही हो आपको समझाने की या कुछ कहने की औकाव ही कहाँ।'