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१८८ :: तुलसी चौरा
 


के आगे अंधेरा छा गया। धड़कन तेज हो गयी। पार्वती नहाकर कपड़े बदल रही थी अम्मा को देखकर चौंक पड़ी। 'क्या हुआ अम्मा' सिर चकरा रहा है? तुम्हें किसने कहा इतना सब करने को! बस मैं सब कर लूँगी। तुम भीतर जाकर लेट जाओ, बस―।'

'चिल्लाओ मत। कुछ नहीं हुआ है मुझे। भीतर से आरती का थाल उठा लाओ।' कामाक्षी का स्वर धीमा था।

पक्षियों का कलरव, कहीं से हवा में तैरता, वेदपाठ का स्वर, नादास्वरम् से मिल कर बहती राग भोपाल―सुबह के अर्थ में कितनी ताजमी थी।'

आस पड़ोस के लोग बाहर निकल आए। पारू को आरती की याद दिलाने बसंती पहले ही भागी चली आ रही थी। ओसारे पर कामाक्षी को देखकर ठिठक गयी।

'काकी, आप ने यह सब क्यों कर डाला?' आप लेटिए…न…।'

'कुछ नहीं हुआ मुझे। शुक्रवार है―विस्तर में पड़े रहने का मन नहीं हुआ। आओ इधर बैठ जाओ। पारू आरती लेने भीतर गयी है।'

पार्वती भीतर से थाल लिये चली आयी। कामाक्षी को देखकर बसंती को पहले तो लगा। कहीं उनका इरादा, व्यवधान डालने का तो नहीं है। पर बातों से तो लगा, उनका ऐसा कोई इरादा नहीं है। वह बिल्कुल शांत और सामान्य स्थिति में थी कामाक्षी का यह बदलाव उसे आश्चर्यचकित कर दिया।

'काकी, सिर धोया है क्या? बाल गीले हैं।'

'हाँ री, शुभ दिन है, तो क्या बगैर नहाए पड़ी रहूँ?'

कामाक्षी ने उत्तर दिया ही था कि लोग घर के द्वार तक आ गए। कामाक्षी को आरती का थाल लिये द्वार पर देखकर कमली, रवि, शर्मा और वेणुकाका चौंक गए, कामाक्षी और बसंती ने आरती गायी। कामाक्षी ने कमली से दायाँ पैर पहले भीतर रखने को कहा। शर्मा को लगा कि अकेले में कामाक्षी ने स्वयं अपने को समझा बुझा लिया