पृष्ठ:Tulsichaura-Hindi.pdf/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२० :: तुलसी चौरा
 


बात और है, बागों की और। खेत बटाई में आसानी में उठ जाएँगे।'

'दक्खिनी मोहल्ले के शंकरसुमन ने, सुना है बिटिया के ब्याह के लिए खेत समेत बाग भी बेच डाले! कुछ पता है?'

'हाँ, सुना तो मैंने भी हैं।'

थोड़ी देर इधर उधर की बातों में शर्मा जी को लगाकर वेणु काका ने पुरानी बात फिर छेड़ दी।

'अब आप गुस्से में रवि को उलटा सीधा मत लिखिए। खुले मन से काम ले लो फिर। वैसे आप समझदार हैं आपको बताने की जरूरत नहीं है।'

आप तो महापंडित हैं, ज्ञानी हैं।

'पर आप मेरी समस्याओं के बारे में भी तो सोचिए। मुझे तो गाँव वालों और मठाधिकारियों को भी तो जवाब देना होगा। और लोगों को तरह मैं सीना फुला कर नहीं चल सकता। यह मत भूलिये काका, कि रवि के अलावा भी, मेरे दो बच्चे और है। गाँव वालों के बारे में लो आप लोग जानते ही हैं। कोई धरम करम की बात हो, तो कोई साथ नहीं देता, पर एक आदमी पर थूकना हो, तो साले सब एक हो जाएँगे। अच्छी बातें तो समझ में नहीं आयेंगी, बुराइयों को उछालेंगे। बाज वक्त तो अच्छी बातें भी उन्हें बुरी नजर आती हैं। ऐसे लोग है कि बस....!'

तुम्हारी बात से मैं इन्कार नहीं करता, शर्मा पर रवि का मन? उसे क्यों दुखायेंगे आप? फूल सा मन है, उसका।'

शर्मा जी चुप रहे। अलबम को उठाकर फिर पलटने लगे। वेणु काका बसंती को देखकर आँखों में ही हँस दिए। बसंती ने अपनी कमेंट्री फिर चालू कर दी....।

'यह जनेवा की झील है। किनारे पर घंटों खड़े रहो, वक्त का पता ही नहीं चलता, मुझे यह जगह बहुत पसन्द है काकू!'

एक आग का चित्र था। बड़े-बड़े फूलों वाले बाग में कमली