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तुलसी चौरा :: ३१
 


फिर दूसरा पत्र डालें कि बेटा, अब मत आओ।'

'नहीं, दीदी! आप इसे पोस्ट कर दीजिए। मैं बाऊ जी से कह दूँगी।

बसंती दी ने मेरे पहुँचने के पहले पोस्ट कर दिया। दोनों अपने अपने घर लौट गयीं।

पार्वती घर लौटी तो पं. विश्वेश्वर शार्मा भूमिनाथपुरम के लिए निकल रहे थे।

अम्मा संझवाती आले पर रख रही थी। चौखट पर, ओसारे के बाहर, छोटी सी रंगोली बना दी थी। इस उम्र में भी माँ, कितनी सुन्दर अल्पना बनाती हैं? हाथ तक नहीं काँपते। पार्वती उनकी बनाई अल्पना देखकर अक्सर सोचती। पर उसके हाथ इतने सधे क्यों नहीं हैं। अम्मा की तो एक भी लकीर टेढ़ी नहीं पड़ती। कभी कभी तो अम्मा के हाथ की इस सफाई से उसे ईर्ष्या भी होने लगती है। एक बार उसने टीन के बने मोल्ड खरीदने चाहे तो अम्मा ने साफ मना कर दिया।

'हमारे जमाने में यह सब कहाँ चलता था, कन्या लड़कियों के मन और हाथों में लक्ष्मी और सरस्वती का वास होना चाहिए। श्रद्धा और निष्ठा हो तो सारे काम सधे हुए ही होते हैं। हमारे जमाने में अगर अल्पना के लिए बने बनाए मोल्ड की बात कोई करता भी तो लोग मजाक बनाते। कोई जरूरत नहीं। बस, धीरे-धीरे कोशिश करो। अपने आप हाथ सधेगा।'

शंकरमंगलम का समूचा अग्रहारम भी कोई छान डाले पर कामाक्षी की तरह सुघड़ गृहणी कहीं नहीं मिलेगी। 'गृह लक्ष्मी' शब्द को साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं, वे! पर वे ऊँचा सुनती हैं, इसलिए शर्मा जी उन्हें अक्सर डाँटते, फटकारते पर इस डाँट फटकार के पीछे दुत्कार या तिरस्कार की भावना कतई नहीं होती! बस अपना

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