हैं। बाऊ ने उन्हें लिखा है।'
'न कब आ रहे हैं?' वह चहका
'पता नहीं। पर रवि भैय्या आ रहे हैं, यह तय है।
पार्वती ने स्टोव जलाकर काँफी बनाने के लिए दूध गरम किया।
चौके में कॉफी या चाय नहीं बन सकती।
चाय कॉफी पीने वाले तीन ही प्राणी हैं। शर्मा जी, पारू और कुमार। इसलिए बैठक में ही एक ऊँचा चबूतरा बना दिया गया था। स्टोव, मिट्टी का तेल चौके में वजित था। चौके में तो पुरानी परम्परा का चूल्हा ही था। कामाक्षी चौके को खूब साफ रखा करती थी। मंदिर के नियमों की तरह उसके चौके के भी अपने नियम थे। लोगों को भी उन्हें नियम अनुष्ठानों के अनुसार चलना पड़ता था।
शर्मा जी भी कई दिनों तक चाय कॉफी से परहेज करते रहे। इधर पिछले कुछ ही सालों से उन्होंने चाय कॉफी पी लेनी शुरू की है। पर उनके लिए भी चौके के नियमों में कोई फेर बदल नहीं किया गया। उनको भी बैठक के चबूतरे तक ही सीमित रखा।
रवि पैरिम जाने के पहले मद्रास में था। छुट्टियों में घर आता तो हँस कर कहता, 'अम्मा, तुम यह जो अल्ल पुबह से चालु हो जाती हो न, गोपूजन फिर तुजसी पूजा, दीप पूजा... पूरे घर को मंदिर बना डालती हो। अब हम लोगों को रहने के लिए कोई दूसरी जगह ढूँढ़नी होगी।'
हालाँकि माँ की लगातार को रोकटोक से खीझ कर वह यूँ कहा करता था, पर मन ही मन माँ के नियम अनुष्ठान की तारीफ किया करता। माँ की सत्यनिष्ठा और सिद्धांतवादिता से वे लोग हमेशा प्रभावित रहे। देखा जाए, तो शर्मा जी की परम्परावादिता और कट्टरपन भी कामाक्षी की ही प्रेरणा का परिणाम है। वह उन्हें छेड़ती, बस, कॉफी तक ही रहिएगा। एक-एक कर बुरी आदतें डालते जायेंगे तो...!'