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५६ :: तुलसी चौरा
 


वेणु काका और बसन्ती ने मुझे समझा बुझाकर मेरा गुस्सा शांत किया।'

'अब यहाँ झगड़ा और समाधान की बात कैसे आ गयी, मैंने तो आपसे कुछ नहीं छिपाया। मुझे लगा आपको गलतफहमी न हो, इसलिए पहले ही लिख दिया। वेणु काका और बसन्ती जब पैरिस आये थे, उन्हें भी सब कुछ बता दिया था। उन्हें समझा दिया था कि वे लोग आपको समझा दें।'

'माना, तुम ठीक कह रहे हो। पर यह गांव? तुम तो जानते ही हो कि हमारे कितने और कैसे विरोधी हैं। अगस्त्य नदी के तट पर स्थित इन गाँववासियों के लिये विटामिनों की तरह यह पंचायत भी जरूरी है। विटामिन शरीर में कम हो तो कोई बात नहीं, पर दूसरों की पंचायत करने का तौर तरीका ये छोड़ नहीं सकते। पुराने जमाने में ये ओसारे इसलिए बनाये जाते थे कि मित्रों, अतिथियों और राहगीरों को विश्राम के लिए स्थान मिले। पर अब? यहाँ तो पंचायत बैठने लगी है। चुगल खोरी, बुराइयाँ कहने-सुनने का अड्डा भर बन कर रह गए हैं, ये ओसारे। इस गांव में तीन सौ ओसारें हैं। इसे वाद रखना। अभी भी पनघट पर तुम्हारी ही चर्चा हो रही होगी।'

'बाऊ जी, मेरी जिंदगी मेरी अपनी है। इसका निर्णायक मैं हूँ, यह तीन सौ ओसारे या तीन गलियां नहीं।'

'ठीक है, तुम पहले नहा धोकर आओ। कॉफी ही तो पी है। इन बातों पर फिर चर्चा करेंगे। उससे भी कह दो नहा ले। और खाना? हमारे यहाँ का खाना चलेगा?'

'हाँ, बाऊ जी। जो भी मिलेगा, वह खा लेगी। यही तो हममें और उनमें फर्क है। वे लोग स्थान के अनुरूप रहना जानते हैं। अपनी ही आदत के अनुसार रहने की जिद हम लोगों में ही है।'

'ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। कुछ बातों में जिद करना ठीक भी है।'