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८४ :: तुलसी चौरा
 

शर्मा जी कारिदे के साथ लौर आए। रवि और कमली ऊपर चले गए।

'स्टाम्प पेपर ले आया हूँ। जो लिखवाना है, लिख ले। दुकान मेरा दामाद चलाएगा, पर करारनाम मेरे नाम पर हो जाए तो ठीक है।'

'दो महीने का किराया पेशगी देना होगा। जमीन पर कुछ भी बनवाना हो, तो वह भी आपके ही जिम्मे होगा।'

'ठीक है, मँजूर है। पेशगी लाया हूँ।'

शर्मा जी को उत्तर देकर इरैमुडिमणि रूपये गिनने लगें। सीढ़ियों पर किसी के चड़ने की आवाज बायी। दोनों ने सिर उठाकर देखा। कपड़ों के व्यापारी बहमद अनी सीढ़ियाँ चढ़कर भीतर आ गए थे, और हाथ जोड़कर खड़े हो गये।

'क्या बात है?' अहमद अली में शर्मा जी ने पूछा।

अहमद अली हँसते हुए बोले, 'आपकी कृपा चाहिए। लीजिए,' एक पत्र शर्मा की ओर बढ़ाते हुए बोले 'सीमावय्यर ने आपके लिए भिजवाया है।'

शर्मा जी ने पत्र खोलकर पढ़ा। उनके चेहरे पर किसी तरह के भाव नहीं उभरे।

'सीमावय्यर से कहिए पत्र मैंने पड़ लिया है। मैं आपको बाद में कहूला भेजूँगा 'पैसों की कोई चिंता मत करें। आप जो भी निर्णय लें, मैं स्वीकार कर लूँगा।'

'कहा न, मैं कहला भेजूँगा।'

'तो चलूँ। आर जरूर कहना भेजियेगा। आज ही कुछ तय कर लें……।'

'हाँ कहला दूँगा।'

अहमद अली ने शर्मा जी से विदा ली। कारिंदे से और वहाँ बैठे इरैमुडिमणि से भी विदा लेकर उतर गए।