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तुलसी चौरा :: ८५
 

शर्मा जी को लगा, इरैमुडिमणि तुरन्त पूछेंगे, मियां किसलिए आये थे, पर उन्होंने नहीं पूछा। बर्मा जी को आश्चर्य सा हुआ।

करारनामा तैयार करवा कर इरैमुडिणि से पेशगी ले ली। फिर कारिंदे को देकर बोले, 'लो इसे मठ के खाते में जमा कर देना।'

उसे भिजवा कर फिर बोले, 'देशिकामणि, इसे पढ़ लेना।' पत्र उनकी ओर बढ़ा दिया।

इरैमुडिमाणि उनसे पत्र ले कर पढ़ने लगे। पन सीमावय्यर का था। मठ की जमीन अहमद अली मियां की नई दुकान को बीस साल की पट्टेदारी पर देने की सिफारिश की गयी थी। यह भी लिखा था कि मियां अच्छी खासी रकम देने को तैयार हैं और मठ को अच्छी पेशगी भी दे सकते हैं। मठ को इससे कितना लाभ होगा। इसका व्यौरेवार विवरण था।

'तो तुम क्यों चुप रह गए?'

'तो फिर क्या, आदमी बेईमानी करे! बचन मैंने तुम्हें दिया था। अगर कोई लालच दे, तो क्या मैं बचन से मुकर जाऊँ? मैंने तो मठ से सलाह भी ले ली थी। अब किसी का डर नहीं पड़ा है।'

'देखा, कैसे वक्त पर पहुँच गए। सीमावय्यर और अहमद अली मियां के बीच 'धड़ल्ले से लेन-देन चलता है।'

'कुछ भी चलता हो। इस जमीन पर परचून की दुकान खुलेगी तो लोगों का फायदा होगा। कपड़ों की दुकान को खास फायदा नहीं होगा। यूँ भी बाजार में दस बीस दुकानें हैं कपड़ों की। इन सब में कई दुकानें इन्हीं मियाँ की हैं। फिर यह जमीन क्यों किराये पर लेना चाहते हैं? सिंगापुर से पैसा अनाप शनाप आ रहा है। गाँव के आधे से ज्यादा मकान, खेत खलिहान खरीद डाले। अभी तक लालच नहीं गया।'

'ऐसा नहीं लगता कि यह जान बूझकर मेरी प्रतिद्धिंता के लिए किया गया है। पता नहीं इन्हें सब कुछ पहले कैसे मालूम हो जाता