जाता है, "हम जगत् के गुप्त रहस्य को क्यों नहीं जान पाते है?" और इसका इस प्रकार निगूढ़ भाव व्यञ्जक उत्तर प्राप्त होता है:― "हम सब व्यर्थ जल्पना करते है, हम इन्द्रिय-सुख से परितृप्त होने वाले और वासनापर है, अतएव इस सत्य को नीहारावृत करके रखते हैं"―"नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उकथशासश्चरन्ति![१] यहाँ पर माया शब्द का व्यवहार तो बिलकुल ही हुआ नहीं, किन्तु इससे यही भाव प्रकट होता है कि हमारी अज्ञता का जो कारण निर्धारित हुआ है वह इस सत्य और हमारे बीच कुज्झटिका के समान वर्तमान है। अब इसके बहुत समय के बाद, अपेक्षाकृत आधुनिक उपनिषदों में माया शब्द का फिर आविर्भाव देखने में आता है। किन्तु इसी बीच में इसका प्रभूत रूपान्तर हो चुका है; उसके साथ कई नये अर्थ संयोजित हो गये है; नाना प्रकार के मतवाद प्रचारित और पुनरुक्त हुये है; और अन्त में माया विषयक धारणा एक स्थिर रूप प्राप्त कर चुकी है। हम श्वेताश्वतर उपनिषद् में पढ़ते हैं―"मायान्तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनन्तु महेश्वरम्।"―माया को ही प्रकृति समझो और मायी को महेश्वर जानो। भगवान शंकराचार्य के पूर्ववर्ती दार्शनिक पण्डितों ने इसी माया शब्द का विभिन्न अर्थों में व्यवहार किया है। मालूम होता है, बौद्धों ने भी माया शब्द या मायावाद को कुछ रञ्जित किया है। किन्तु बौद्धों ने इसको प्रायः विज्ञानवाद[२]
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