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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२००

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ज्ञानयोग


देखा है। लोग कहते है कि वह " स्वाभाविक ज्ञान" है । " स्वाभा- "विक ज्ञान" कहने से हमने एक लम्बे चौड़े शब्द का प्रयोग किया है इतना ही, किनु उसन हम नयी कोई वस्तु नही सिखाई । अब आलोचना की जाय कि यह स्वाभाविक ज्ञान है क्या। हमारे भीतर ही अनेक प्रकार के स्वाभाविक ज्ञान वर्तमान है। मानो एक व्यक्ति ने पियानो गाना बजाना सीखना शुरू किया । पहले 'सरगम' की ओर गहरा ध्यान देकर उंगलियों को चलाना पड़ता है, किन्तु कई महीनो नथा मालो अभ्यास हो जाने पर उंगलियों आप ही आप ठीक ठीक स्यानो पर चलती फिरती है और वह स्वाभाविक हो जाता है । किसी समय जिममे ज्ञान -पूर्वक इच्छा का प्रयोजन होता था, उसमे और उसकी कोई जरूरत न रह गई, एवं ज्ञानपूर्वक इच्छा के विना ही वह अब सम्पन्न हो सकता है और उसी को स्वाभाविक ज्ञान कहते है । पहले वह इच्छा के साथ था, अन्त में उसमे इच्छा का कोई ग्रयोजन न रहा । किन्तु स्वाभाविक ज्ञान का तत्व अभी पूरा नहीं कहा गया है, अब भी आधा रह गया है। वह यह है कि जो सब कार्य अब हमारे लिये स्वाभाविक हैं, प्रायः उन सभी को हम अपनी इच्छा के वश मे ला सकते है। शरीर की प्रति पेशी को ही हम अपने वश मे ला सकते है। आजकल यह विषय हम सभी को अच्छी तरह से ज्ञात है । अतएव अन्वयी व व्यतिरेकी इन दोनो उपायो से ही प्रमाणित किया गया है कि जिसे हम स्वाभाविक ज्ञान कहते है वह इच्छाकृत कार्य के अवनत भाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अतएव जब सारी प्रकृति में एक ही नियम का राज्य है तो समग्र नृष्टि में 'उपमान-प्रमाण' का प्रयोग करके इस सिद्धान्त मरहम पहुंच