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बहुत्व में एकत्व


नियमो के राज्य के बाहर जाओ, कारण ये नियम प्रकृति के सभी अशो मे व्यापक नहीं है, वे तुम्हारे वास्तविक स्वरूप को बहुत कम प्रकाशित करते है। पहले अपने को समझो कि तुम प्रकृति के दास नही हो, न कभी थे, न कभी होओगे-प्रकृति यो तो अनन्त मालूम पडती है अवश्य, किन्तु वास्तव मे वह ससीम है। वह समुद्र का एक बिन्दु मात्र है, और तुम्ही वास्तव मे समुद्र रूप हो, तुम चन्द्र, सूर्य, तारे सभी के अतीत हो। तुम्हारे अनन्त स्वरूप की तुलना में वे केवल बुदबुदो के समान है। यह जान लेने पर तुम अच्छे और बुरे दोनो पर विजय पा जाओगे। तभी तुम्हारी दृष्टि एकदम परिवर्तित हो जायगी, तब तुम खडे हो कर कह सकोगे, 'मंगल कितना सुन्दर है और अमगल कितना अद्भुत है!'

वेदान्त यही करने को कहता है। वेदान्त यह नहीं कहता कि स्वर्णपत्र से घाव के स्थान को ढॉक कर रक्खो, और घाव जितना ही पकता जाय उसे और भी स्वर्णपत्रो से मढ दो। जीवन एक कठिन समस्या है इसमे सन्देह नहीं। यद्यपि वह वज्र के समान दुर्भेद्य प्रतीत होता है, तथापि यदि हो सके तो इसके बाहर जाने की चेष्टा करो--आत्मा इस देह की अपेक्षा अनन्त गुना शक्तिमान है। वेदान्त तुम्हारे कर्म-फल के लिये दूसरे देवता पर दायित्व नहीं डालता, वह कहता है, तुम स्वय ही अपने अदृष्ट के निर्माता हो। तुम अपने कर्म--फल से अच्छे और बुरे दोनो ही फल भोग करते हो, तुम अपने ही हाथो से अपनी ऑखे मूॅद कर कहते हो-अन्धकार है। हाथ हटाओ--तुम्हे प्रकाश दिखेगा। तुम ज्योतिस्वरूप हो--तुम पहले से ही सिद्ध हो। अब हम-- 'मृत्यो. स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति' इस श्रुति का अर्थ समझ पा रहे हैं।