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ज्ञानयोग


उसका आनन्द स्वभाव, सभी इस बात के ऊपर निर्भर है कि आत्मा कार्य-कारण-सम्बन्ध एवं इस माया से अतीत है। अब यदि इस समय तुम कहो कि आत्मा का स्वभाव पहले पूर्ण मुक्त था, इस समय वह बद्ध हो गई है, तो इससे यही जाना जाता है कि वस्तुतः वह मुक्तस्वभाव थी ही नहीं। तुम जो कहते हो कि वह मुक्तस्वभाव थी, वह असत्य है। किन्तु दूसरी ओर हम देखते है कि हम वास्तविक मुक्तस्वभाव है; यह जो हम बद्ध हुए है ऐसा ज्ञात हो रहा है यह हमारी केवल भ्रान्ति है। अब इन दोनों पक्षों में कौन सा पक्ष लोगे? या तो पहले पक्ष को भ्रान्ति कहो या दूसरे पक्ष को भ्रान्ति कह कर स्वीकार करो। मैं तो निश्चय ही द्वितीय पक्ष को भ्रान्ति कहूँगा। यही हमारे समुदय भाव और अनुभति के साथ संगत है। मै अच्छी तरह जानता हूॅ कि मैं स्वभावतः मुक्त हूॅ। बद्ध भाव सत्य एवं मुक्त भाव भ्रमात्मक हो, यह ठीक नहीं।

सभी दर्शनों मे स्थूल भाव से यही विचार चलता है। यहाँ तक देखा जाता है कि अत्यन्त आधुनिक दर्शन मे भी यह विचार प्रविष्ट हुआ है। इस सम्बन्ध में दो दल है; एक दल कहता है, आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं है, वह तो केवल भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति का कारण सभी जडकणों का बारंबार स्थान-परिवर्तन है; यह समवाय--जिसे तुम शरीर, मस्तिष्क आदि नामों से पुकारते हो, उसी के स्पन्दन से, उसी की गतिविशेष से एवं उसके सभी अंशों के लगातार स्थान परिवर्तन से यह मुक्त स्वभाव की धारणा आती है। कुछ बौद्ध सम्प्रदाय भी थे, उनका कहना था कि एक मशाल लो, और उसे चारों ओर लगातार ज़ोर से घुमाओ, तो एक वर्तुलाकार प्रकाश दिखाई पड़ेगा। वस्तुतः इस गोलाकार प्रकाश का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि यह