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माया

परिवार बहुत कम देखने में आते है। थोड़े बहुत सुखी परिवार हो भी सकते है, परन्तु असुखी परिवारों तथा असुखकर विवाहों की संख्या वर्णनातीत है। मैं जिस किसी सभा में गया हूँ, वहाँ सुनता हूँ कि उसमे उपस्थित एक तिहाई स्त्रियों ने अपने पति-पुत्रो को बहिष्कृत कर दिया है। इसी प्रकार सभी जगह है। इससे क्या सिद्ध होता है? सिद्ध होता है कि इस सब आदर्श के द्वारा अधिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता। हम सभी सुख के लिये उत्कट चेष्टा कर रहे है, किन्तु एक ओर कुछ प्राप्त होने के पहले ही दूसरी ओर दुःख उपस्थित हो जाता है।

तब क्या हम कोई भी शुभ कर्म न करे? अवश्य करे, और पहले की अपेक्षा अधिक उत्साहित होकर हम इस कार्य को करे। किन्तु यही ज्ञान-शिक्षा हमारे औद्धत्य एवं तआस्सुब (Fanaticism) को नष्ट करेगी। तब अगरेज उत्तेजित होकर हिन्दू को "ओह्, पैशाचिक हिन्दू! नारियो के प्रति कैसा असद्व्यवहार करता है!"― यह कहकर अभिशप्त नहीं करेंगे। तब वे विभिन्न जातियों की प्रथाओं को आदरणीय बनाने की शिक्षा देगे। तआस्सुब कम होगा, कार्य अधिक होगा। तआस्सुब में आदमी अधिक कार्य नहीं कर पाता। वह, अपनी शक्ति का तीन चौथाई व्यर्थ ही व्यय कर देता है। जिन्हे धीर प्रशान्त चित्त 'काम के आदमी' कह कर पुकारा जाता है वे ही कर्म करते है। निरर्थक वाक्यपटु तआस्सुबी व्यक्ति कुछ भी नहीं कर पाता। अतएव इसी ज्ञान के द्वारा कार्यकारिणी शक्ति की वृद्धि होगी। घटनाचक्र ऐसा ही है, यह जान कर हमारी तितिक्षा भी अधिक होगी। दुःख और अमड्गल के दृश्य