हमें साम्यभाव से च्युत नहीं कर सकेंगे और छाया के पीछे पीछे दौड़ा नहीं सकेंगे। अतएव संसार की गति ही ऐसी है यह जान कर हम सहिष्णु बनेंगे। उदाहरण स्वरूप हम कह सकते है कि सभी मनुष्य दोषशून्य हो जायेंगे, पशु भी मनुष्यत्व प्राप्त कर इसी अवस्था में से होकर गुजरेंगे और वनस्पतियों की भी यही दशा होगी। किन्तु यह एक बात निश्चित है--यह महती नदी प्रबल वेग से समुद्र की ओर बह रही है; तृण, पत्ते आदि सब इसके स्रोत में बह रहे हैं और सम्भवतः विपरीत दिशा में बहने की भी चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु ऐसा समय आयेगा जब प्रत्येक वस्तु उस समुद्र के वक्षःस्थल में खिंच कर पहुँच जायगी। अतएव, जीवन समस्त दुःख और क्लेश, आनन्द, हास्य और क्रन्दन के सहित उसी अनन्त समुद्र की ओर प्रबल वेग से प्रवाहित हो रहा है, यह निश्चित है और केवल समय का प्रश्न है जब कि तुम, मैं, जीव, उद्भिद् और साधारण जीवाणु कण जो कुछ भी जहाॅ पर है रह चुका है सब कुछ उसी अनन्त जीवन--समुद्र में--मुक्ति और ईश्वर में पहुॅचकर रहेगा।
मैं एक बार फिर कहता हूॅ कि वेदान्त का दृष्टिकोण आशावादी अथवा निगशावादी नहीं है। यह संसार केवल मंगलमय है अथवा केवल अमगलमय है ऐसा मत वह व्यक्त नहीं करता। वह कहता है कि हमारे मंगल और अमंगल दोनो का मूल्य बराबर है। ये दोनो
इसी प्रकार हिलमिल कर रहा करते है। संसार ऐसा ही है यह समझ कर तुम सहिष्णुता के साथ कर्म करे? किन्तु किस लिये? यदि घटनाचक्र इसी प्रकार का है तो हम क्या करे? हम अज्ञेयवादी क्यों
न हो जाये' आजकल के अज्ञेयवादी भी तो कहते है कि