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ज्ञानयोग


फिर आ जायगी। शरीर पूर्वकृत कर्म के अधीन रहेगा इसीलिये यह मरीचिका फिर लौट आयेगी। जब तक हम कर्म से बँधे हुए है तब तक जगत् हमारे सम्मुख आयेगा ही। नर, नारी, पशु, उद्भिद, आसक्ति, कर्तव्य--सभी कुछ आयेगा किन्तु पहले की तरह हमारे ऊपर इसकी शक्ति का प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसी नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का नाश होगा, उसका विष का दाँत टूट जायगा; जगत् हमारे सम्मुख एकदम बदल जायगा; कारण, जैसे जगत् दिखाई देगा वैसे ही उसके साथ सत्य और मरीचिका के भेद का ज्ञान भी आयेगा।

उस समय यह जगत् पहले का सा जगत् नहीं रहेगा। किन्तु इस प्रकार के ज्ञान की साधना मे एक विपदाशङ्का है। हम देखते है कि प्रत्येक देश मे लोग यही वेदान्त का मत ग्रहण करके वाहते है, "मै धर्माधर्म से अतीत हूँ, मै विधि-निषेध से परे हूँ, अतः मेरी जो इच्छा होगी वही मै करूॅगा।" इसी देश में देखो,अनेक अज्ञानी कहते रहते हैं, "मैं बद्ध नही हूॅ, मे स्वय ईश्वर स्वरूप हूँ; मेरी जो इच्छा होगी वही करूॅगा।" यह ठीक नहीं है यद्यपि यह बात सच है कि आत्मा भौतिक, मानसिक और नैतिक सभी प्रकार के नियमो से अतीत है। नियम के अन्दर बन्धन हैं, नियम के बाहर मुक्ति। यह भी सच है कि मुक्ति आत्मा का जन्मगत स्वभाव है, यह उसका जन्मप्राप्त स्वत्व है और आत्मा का वास्तविक मुक्त स्वभाव भौतिक आवरण के भीतर से मनुष्य की आपातप्रतीयमान स्वतन्त्रता के रूप मे प्रतीत होता है। अपने जीवन के प्रतिक्षण में तुम अपने को मुक्त अनुभव करते हो। हम अपने को मुक्त अनुभव बिना किये एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते,