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यह गली बिकाऊ नहीं/101
 

विजय-यात्रा की कामना करते हुए उसकी तारीफ़ के पुल भी बाँधे।

जैसे-जैसे यात्रा के दिन निकट होते गये--वैसे-वैसे घनिष्ठ मित्रों के यहाँ विदाई-दावतों का तांता लग गया। कुछेक में मुत्तुकुमरन् शामिल नहीं हुआ। एक दिन माधवी ने स्वयं जोर दिया कि मेरी अभिनेत्री-सहेली पार्टी दे रही है। आपको उसमें अवश्य शामिल होना चाहिए। पर वह गया नहीं। जिस दिन हवाई जहाज़ की यात्रा थी, उसके पहले दिन रात को माधवी ने स्वयं अपने घर में मुत्तुकुमरन्औ र गोपाल को दावत के लिए बुलाया था।

मुत्तकृमरन् उस दिन शाम को ही माधवी के घर आ गया था। शाम का नाश्ता भी वहीं किया। उसके बाद माधवी और वह दोनों बैठे बातें कर रहे थे।

उस दिन माधवी सुरमई रेशम की साड़ी पहने हुए थी, जिसपर बीच-बीच में ज़री के सितारे चमक रहे थे, जिससे उसकी सुनहली देह की सुन्दरता में चार-चाँद लग गये थे! मुत्तुकुमरन् उसकी मोहिनी सूरत पर मोहित होकर कवित्वमयी भाषा में कह उठा, “अंधकार की साड़ी पहने, विद्युल्लता विचरती हैं, विश्व के प्रांगण में।"

"वाह वाह! क्या खूब! इस पर तो कुबेर का भंडार उड़ेला जा सकता है!"

"सच कहती हो या मेरी तारीफ़ की तारीफ़ में तुम मेंरी तारीफ़ करती हो?"

"सच कह रही हूँ। आपने मेरी तारीफ़ की। बदले में मैंने आपकी तारीफ़ कर दी।"

इस तरह दोनों बातें कर ही रहे थे कि गोपाल का फोन आया। माधवी ने रिसीवर उठाया।

"आयकर के एक मामले में मुझे एक अधिकारी से अभी तुरत मिलना है। मैं आज वहाँ नहीं आ सकता। माफ़ करना!"

"आप भी ऐसा कहें तो कैसे काम चलेगा? आपको जरूर आना है। मैं और लेखक महोदय काफ़ी देर से आपका इन्तजार कर रहे हैं।"

"नहीं-नहीं, आज यह मुमकिन नहीं लगता। मुत्तकुमरन् जी से भी कह देना।"

उसका चेहरा स्याह पड़ गया। फ़ोन रखकर मुत्तुकुमरन् से बोली, "आज वे नहीं आ रहे हैं। कहते हैं, किसी आयकर अधिकारी से मिलना है।"

"जाये तो जाये! उसके लिए तुम उदास होती क्यों हो?"

"उदास नहीं होती! कोई आने की बात कहकर सहसा न आने की बात कहे तो दिल हताश हो जाता है न?"

"माधवी! मैं एक बात पूछूँ! बुरा तो नहीं मानोगी?"

"क्या है भला?"

"आज की दावत में गोपाल आता और मैं नहीं आता तो क्या समझती?"

"ऐसी कोई कल्पना मैं कर ही नहीं सकती!"