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यह गली बिकाऊ नहीं/27
 


व्यवस्थाओं के बाद मुझे पैसे की क्या ज़रूरत पड़ेगी ? पैसा बयों न लौटा दिया जाये ?'-इस विचार को त्रियान्वित करते हुए भी उसका जी हिचका । ऐसा करने पर मित्र के दिल को चोट पहुंचे तो क्या हो ?

उसने उस लिफ़ाफ़े को रुपयों की गड्डी और उस पुर्जे को, दराज में इस तरह घुसेड़ दिया, मानो कोई बेकार का बण्डल हो।

उस विचार को दूर ढकेलकर उसने अपना जी नाटक रचना की ओर लगाया। मद्रास जैसे बड़े महानगर में गोपाल जैसे सुप्रसिद्ध अभिनेता द्वारा खेले जानेवाला नाटक का प्रणेता होकर नाम-यश लूटने का उसे अच्छा-खासा मौका हाथ लगा है। इससे ख ब फ़ायदा उठाना है--इस निर्णय तक पहुँचने पर उसके मन में यह बात आयी कि मदुरै कन्दस्वामी नायुडु की सभा के लिए लिखे हुए बाल विनोद नाटकों और अब गोपाल के लिए लिखे जानेवाले नाटक में कौन-सा मौलिक भेद होना चाहिए। ताकि तकनीक, रूप-विधान, संवाद, घटना- खला, हास्य आदि हरेक पहलू तथा स्थान और काल की दृष्टि से भी नाटक विश्वसनीय लगे।

वार-बार उसका ध्यान नाटक-लेखन के विषय में जिस तरह सोचने लगा था, उसका कारण यह नहीं कि उसे नाटक, संवाद या गीत लिखना नहीं आता था। इस कला में तो वह निपुण और सिद्धहस्त था ही। उसे एक नये संसार में अपनी कला का प्रदर्शन कर कामयाबी हासिल करनी थी। इतने सोच-विचार, असमंजस और संकोच के पीछे यही विचार घर किये हुए था।

मद्रास में कदम रखते-न-रखते, उसने यह आशा नहीं की थी कि उसके मित्र के द्वारा ही उसे ऐसा एक मौका मिलेगा। इस मौके का फायदा उठाकर सफल कदम रखने की ओर उसका ध्यान एकाग्र हुआ । वह मन-ही-मन उस पर योजनाओं की इमारत खड़ी करने लगा।

सबेरे नौ बजे छोकरा नायर इडली और कॉफी ले आया और बोला, "सर, आपका नाश्ता तैयार है।"

"साहब हैं या स्टूडियो चले गये?" मुत्तुकुमरन् "अभी नहीं गये । दस मिनट में जाएँगे !" उत्तर में लड़के ने यह भी जोड़ा कि साहब का हुक्म है कि आपकी हर जरूरत का ख्याल रखा जाये।

मुत्तुकुमरन् नाश्ता कर कॉफी पी रहा था कि टेलिफ़ोन की घंटी बजी।

बँगले से गोपाल बोल रहा था।

"मैं स्टूडियो जा रहा हूँ उस्ताद ! जो चाहो, लड़के से कहकर निस्संकोच मँगा लो ! बाद को स्टूडियो से फोन करूंगा। नाटक जरा जल्दी तैयार हो जाए तो अच्छा!"

"सो तो ठीक है लेकिन लिफ़ाफ़े में जो कुछ भेजा हैं, समझ में नहीं आता कि उसका क्या मतलब है. ! क्या तुम मुझे यह दिखाना चाहते हो कि वह तुम्हारे पास