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38/यह गली बिकाऊ नहीं
 


"अब मैं गाने लगूं तो आपका आधा घंटा व्यर्थ जाएगा। आपके काम में बाधा पड़ेगी!"

"तुम्हारा गाना सुनने से बढ़कर बड़ा काम और क्या हो सकता है भला?"

माधवी कंठ साफ़ कर गाने लगी:--

"मेरे हृदय मंच पर कत नाच्ने तुम !

तुम्हारे संकेतों पर प्रिय 'नाचती मैं।"

मुत्तुकुमरन् के कानों में मानो मधु प्रवाहित होने लगा। उक्त गीत ने वहाँ ऐसा वातावरण खड़ा कर दिया कि मुत्तुकमरन् माधवी को कथा-नायिका और अपने को कथा-नायक-सा अनुभव करने लगा। उसके शब्द माधवी के कंठ में घुलकर अमृत बहाने लगे तो वह मंत्र-मुग्ध-सा हो गया ! माधवी ने गीत पूरा किया तो लगा कि अमृत-वर्षा थम गयी।

गीत बन्द होने पर ही मुत्तुकुमरन ने दौड़कर गुलदस्ते की तरह माधवी को अपनी बाँहों में भर लिया। उसने भी उसे रोका नहीं। उसके आलिंगन में वह असीम सुख का अनुभव कर रही थी।

दोनों ने दोपहर का खाना आउट हाउस में ही मंगाकर खाया। मेज पर पत्ता बिनकर माधवी ने भोजन परोसा।

"तुम्हारे इस तरह परोसने को किसीने देख लिया तो क्या समझेगा?" "ऐसा किसलिए पूछ रहे हैं ?"

"इसलिए कि हम दोनों को इतनी जल्दी एक होते हुए देखकर, देखनेवाले ताज्जुब और डाह नहीं करेंगे?"

"करें तो करें ! पर मेरे खयाल में ऐसा लगता है कि इस तरह मिलने और एक होने के लिए दुनिया के हर किसी कोने में हर जमाने में-कोई--कोई औरत-मर्द अवश्य उपस्थित रहते हैं।"

"सो तो ठीक है। पर मुझे देखते ही तुम्हारे मन में इतना प्यार क्यों हो आया?"

"यह प्रश्न बड़ा क्रूर और अहंकारपूर्ण हैं। किसी तरह यहाँ आकर, राजा की तरह पैर पर पैर धरे बैठे रहे और मुझे मोह लिया ! अब अनजान बनकर पूछते हैं कि क्यों? वाह रे वाह!"

"अच्छा, तो तुम मुझपर यह आरोप लगाती हो कि मैंने तुम्हें मोह लिया !"

"सिर्फ मुझे नहीं ! पहले गंभीर चाल से अन्दर आकर, फिर पैर पर पैर बढ़ा- कर राजा की भाँति बैठे और कमरे में उपस्थित सभी लोगों को आपने मोह लिया ! लेकिन मुझे छोड़कर आपके पास आने की किसी दुसरी को हिम्मत नहीं पड़ी। और बातें करते हुए मैं ही क्यों, सभी डर रही थीं। सिर्फ मैं ही हिम्मत करके आपके पास