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48/यह गली बिकाऊ नहीं
 

मुत्तुकुमरन् समझ गया कि गोपाल ने माधवी से भी बातें की हैं । अन्यथा माधवी में यह कृत्रिम गंभीरता नहीं आती। पास जाकर उसके टाइप किये हुए काग़ज़ उसने उठाये । तब भी बिना बोले माधवी टाइप करने में लगी रही।

"माधवी ! नाराज हो क्या? कुछ बोलती क्यों नहीं ! क्या आज मौन व्रत है ?" माधवी का मौन-भंग करने के लिए उसने बात छेड़ी।

टाइप करना बंदकर वह उसकी ओर मुड़ी और जैसे अचानक फट पड़ी, "मैंने आपको कितना आगाह किया था, लेकिन आपने सारी बातें गोपालजी से कह दी। यह मुझे क़तई पसन्द नहीं है !"

माधवी के संदेह और क्रोध का कारण अब मुत्तुकुमरन् की समझ में आ गया। पर उसका एक काम पसन्द नहीं आया। उसने कितनी जल्दी उसके बारे में अपनी धारणा बदल ली और सारी बातें उगल दीं। गुस्से में उसकी भौंहें तन गयीं और आँखें लाल हो गयीं!

...


सात
 

मुत्तुकुमरन् के विचार यही था कि स्त्रियों की बुद्धि पीठ-पीछे होती है । आखिर उसके विषय में माधवी के मन में संदेह क्यों उठा? इसका कारण एक हद तक वह जानता था । उसके मन में आया कि अपने प्रत्युत्तर से करारी चोट करे।

"तुम जैसे कायरों का काम है यह । मैं क्यों ऐसा करूँगा?"

माधवी ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी उँगलियों ने टाइप करना बंद कर दिया। वह चुपचाप सिर झुकाये वैसी ही बैठी रही। उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा । जब वह उसका मौन बर्दाश्त नहीं कर पाया तो तनिक ठंडा होकर बोला, "बताओ तो सही कि क्या हुआ?"

माधवी ने कहा, "अभी आप ने जो कुछ कहा, उसे दुहराइये तो सुनूं !" "मैंने क्या कहा ? कुछ गलत तो नहीं कहा !" "बात क्यों छिपाते हैं ? क्या आपने यह नहीं कहा कि तुम जैसे कायरों का काम है वह !".

"हाँ ! कल रात को तुम्हारे घर से चलले हुए मेरे कानों में तुमने जो कुछ कहा, वह मुझे कतई पसन्द नहीं है।"

"मैंने क्या बुरा कह दिया?"

"तुमने किसी के डर के मारे ही कहा था न कि समुद्र-तट की सैर की बात .. वहां न कहिएगा!"