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62/यह गली बीकाऊ नहीं
 

सुने क्रोध-भरा मौन धारण किये हुए वह खड़ा रहा । नुत्तुकुमरन के मुंह से जैसे ज्वालामुखी फूट पड़ी थी ! उसके सामने गोपाल का क्या वश था? मुत्तुकुमरन् के चेहरे पर क्रोध का तूफ़ान बरसा देखकर माधवी भी सहम गयी।

"जिल-जिल से बढ़कर पांडि बाजार के तुम्हारे सैलून वाला..." भुत्तुकुमरन् का जवाब गोपाल पर बाबुक की तरह पड़ा तो वह सकपका गया था। उसके संभलने के पहले मुत्तुकुमरन् सँभल गया और ऐसे स्वाभाविक ढंग से बोला, मानो कुछ भी नहीं हुआ हो!

"कल से नाटक का रिहर्सल यहीं इसी आउट हाउस में होगा ! तुम भी आ जाना!"--मानो आदेश जारी किया।

गोपाल चुप था, वह कुछ भी बोल नहीं पाया।



नौ
 


"आज तुम्हारे पास पैसा है, हैसियत खड़ी हो गयी है। इसलिए मैं यह नहीं मानूंगा कि तुम नाटक के मामले में भी पारंगत हो गये हो । नाटक के बारे में मैं जो जानता हूँ, वह तुम नहीं जानते। मेरी बात मानकर चलो। मेरी बात से आगे मत बढ़ो। एकाएक तुम्हें बुद्धिमानी की सीढ़ी पर चढ़ने की कोई जरूरत नहीं। समझे?" वह कुछ इस तरह गोपाल को आड़े हाथों लेना चाहता था । पर माधवी के सामने उसका सिर नीचा नहीं करना चाहता था।

वहाँ से चलते हुए गोपाल ने नाटक की एक प्रति हाथ में ली तो मुत्तुकुमरन् ने ऊँचे स्वर में फटकारते हुए कहा, "उसे कहाँ लिये जा रहे हो? यहीं रख दो।" गोपाल उसकी बातों का उल्लंघन नहीं कर सका।

इस दशा में माधवी को वहाँ रहना उचित नहीं जेंचा तो घर चल दी। उसके जाने के थोड़ी देर बाद गोपाल भी अपने बँगले में चला गया। जाते हुए उसने मुत्तुकुमरन् से विदा नहीं ली । मुत्तुकुमरम् को लगा कि गोपाल नाहक रूठ रहा है। पर रूठे को मनाने से उसके अहंकार ने उसे मना कर दिया। रात को सात बजे नायर छोकरा खाना लाया और मुत्तुकुमरन् के हाथ एक बन्द लिफ़ाफ़ा देते हुए कहा, "मालिक ने भेजा है !"

मुसुकुमरन् जिज्ञासा से उसे खोलकर पढ़ने लगा। लड़के ने मेज पर खाना रखकर गिलास में पानी भरा और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये वापस बंगले को चल पड़ा।